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सामायिकका समय
रजनीदिनयोरंते तदवश्यं भावनीयमविचलितं । इतरत्र पुनः समये न कृतं दोषाय तद् गुणाय कृतं ॥ १४६ ॥
[ पुरुषार्थ सिद्ध पाय
अन्वयार्थ - (तत्) वह सामायिक ( रजनीदिनयो: अंते ) रात और दिनके अंत समय में - संध्या समय में ( अविचलितं ) निश्चितरूपसे ( अवश्यं भावनीयं ) अवश्य हो करना चाहिये | ( पुनः इतरत्र समये कृतं ) फिर दूसरे समय में किया हुआ ( तत् ) वह सामायिक ( न दोषाय ) दोष पैदा करनेवाला नहीं होता है किंतु ( गुणाय कृतं ) गुण पैदा करनेवाला होता है |
विशेषार्थ - सामायिक बिना निर्विकल्पक परिणामोंके नहीं हो सकता, जिस समय किसी बातकी भी चिंता रहती है उस समय सामायिक अच्छी तरह नहीं होता है इसलिये उसकेलिये रातदिन के अंतका समय निराकुलताका समय है । रातदिनका अंत एक तो प्रातःकाल होता है और एक सूर्यास्त होनेके पश्चात् सायंकाल होता है, दोनों समयोंको संध्या समय कहते हैं, संध्या नाम मिले हुये समयका है, प्रातःकाल रात्रि और दिनका मिला हुआ समय है, सायंकाल भी दोनोंका मिला हुआ समय है । इसीलिये दोनों समयोंका नाम संध्या समय है । इन संध्या समयों में सामायिकका निश्चित समय है, इनमें तो अवश्य ही करना चाहिये, कारण इन समयों में परिणामों अन्यान्य कार्यों के करनेकी आकुलता नहीं होती है । प्रातःकाल व्यापार आदि कार्यों का समय नहीं है, दूसरे उस समय आत्माके परिणाम स्वयं निर्मल होते हैं इसलिये उस समय चित्तपूर्वक सामायिक करनेका समय है । सायंकाल भी ऐसा ही समय है, वहां भी व्यापारादि कार्य किये जा चुकते हैं। यदि इन समयोंके अतिरिक्त दूसरे समयों में भी सामायिक किया जाय तो भी वह दोषोत्पादक न होकर गुणकारी होगा । इससे यह सिद्ध हुआ कि सामायिक करनेवाले पुरुषके स्थूल सूक्ष्म दोनों प्रकारकी हिंसाका त्याग हो जाता है, ऐसी अवस्था में
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