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________________ १२ [ पुरुषार्थसिद्धय पाय wwwwwwwwwwwwwwimmmmwwwwimmwwwmummmmmmmmmmmmmmmmm ठहरेगा। जिस दृष्टिसे वस्तु नित्य कही जाती है, वह दृष्टि द्रव्यदृष्टि है; क्योंकि द्रव्य कभी नष्ट नहीं होता, वह कितनी ही अवस्थाएँ क्यों न धारण करे परन्तु अपने स्वरूपका परित्याग कभी नहीं कर सकता; तथा जिस दृष्टिसे वस्तु अनित्य कही जाती है वह दृष्टि पर्यायदृष्टि है, पर्याय सदा पलटती रहती है, वस्तुमें एक पर्याय कभी नहीं रहती, जो एक समयमें पर्याय है वह दूसरे समयमें नहीं रहती, दूसरी ही उत्पन्न हो जाती है । दृटान्तके लिए दीपशिखाको ले लीजिए: दीपशिखा बरावर एक ही दीखती है, परन्तु वह एक नहीं किन्तु प्रतिक्षण बदलती रहती है, नवीन नवीन तेल-परमाणुओंके आकर्षणसे कभी तेज, कभी मंद, कभी अधिक ऊँची, कभी कम ऊँची, आदि अनेक अवस्थायें धारण करती रहती है । वेसव परिणमन सूक्ष्म हैं एवं सदृश है । इसलिए देखनेवाले छद्मस्थोंको एक ही शिखा प्रतीत होती है । इसीलिये पर्यायहष्टिसे वस्तु अनित्य है, यदि पर्यायहष्टिको छोड़ दिया जाय, फिर वस्तुको अनित्य कहा जाय, तो पेसा कहना सर्वथा वाधित है; कारण वस्तु द्रव्यदृष्टिसे नित्य भी है, उसे सामान्यरूपसे वस्तुको अनित्य नहीं कहा जा सकता । इसीप्रकार द्रव्यदृष्टिको छोड़कर केवल सामान्यरूपसे वस्तुको नित्य कहा जाय, तो वैसा कहना सर्वथा प्रमाणबाधित है; कारण पर्यायदृष्टिसे वस्तु अनित्य भी है, उसे सर्वथा नित्य समझना भूल है। इसलिए पर्यायदृष्टिसे वस्तु सदा अनित्य और द्रव्यदृष्टिसे सदा नित्य कही जाती है। जबकि वस्तु द्रव्यपर्यायरूप अथवा गुणपर्यायरूप है तो दृष्टिभेद भी उसमें स्वभाविक है, जहां दृष्टिभेद है वहां धर्मभेद भी अनिवार्य है; अतः एक ही वस्तुमें दो धर्म परस्पर विरोधी नहीं किन्तु परम-अविरोधी और एक दूसरेके साधक हैं । इसी अपेक्षाकृत निरूपण को स्याद्वाद कहते हैं. 'स्यात्' नाम कथंचित का है और 'वाद' नाम विवक्षाका है,अर्थात् किसी दृष्टिसे एक विवक्षा, किसी दृष्टिसे दूसरी विवक्षा वस्तुनिरूपणामें घटित होती है। इस स्याबाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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