SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय ] रूप कथंचित-विवक्षातत्वको नहीं समझनेसे ही अच्छे अच्छे बौद्ध, सांख्य आदिक दार्शनिक भूलमें पड़े हुए हैं । बौद्धदर्शन ने केवल पर्याय परिणमनको ध्यान में रख कर वस्तुको सर्वथा अनित्य मान लिया, परन्तु जो आत्मा हिंसा करता है, वा तप करता है, उसको हिंसाका फल अथवा तपका फल क्या मिल सकेगा ? हिंसा अथवा तप करनेवाला आत्मा तो बौद्धदर्शनके सिद्धांतानुसार नष्ट हो चुका, क्योंकि उसके यहां आत्मा भी अनित्य है ! वस्तु को सर्वथा अनित्य मानने में नरक, स्वर्ग, पुण्य, पाप, दान, तप, शील, मोक्ष आदि किसी पदार्थकी व्यवस्था नहीं ठहर सकती, कारण उन सब कार्योका करनेवाला और उन पुण्यपापादिकके फलको भोगनेवाला आत्मा ही एक क्षण में सर्वथा नष्ट हो जाता है, तो फिर वह पुण्यपापके फल को कैसे भोग सकता है ! इसी प्रकार सांख्यदर्शनवाला बौद्धसे विपरीत, वस्तुको सर्वथा नित्य मानता है, उसके यहां भी वस्तुव्यवस्था नहीं बन सकती । जब कि आत्मा सर्वथा नित्य है तो परिणामों में कभी हिंसारूप प्रवृत्ति, कभी सात्विक भावोंकी जागृति, कभी क्रोधावस्था कभी हास्यरसास्वादन, कभी तपोजनित शुद्ध परिणति, कभी उसके प्रतिकूल अशुद्ध परिणति आदि भावोंका पलटना हो नहीं सकता । वैसी अवस्था में नरक, स्बर्ग मोक्षादि व्यवस्था भी नहीं बन सकती । यही युक्तिशून्य, अव्यवस्थित एवं प्रमाणबाधित व्यवस्था अन्यान्य समस्त वेदांती, मीमांसक, नैयायिक, वैशेषिक, प्रभाकर भट्ट, आदि दार्शनिक विद्वानोंके यहां समझना चाहिये । अतएव उनका आगम आगमाभास है । वस्तुस्वरूप अनेक धर्मात्मक. है, वे अनेकधर्म पर्यायात्मक हैं, पर्यायें सूक्ष्म हैं, इसीलिये उनका यथार्थ विवेचन सर्वज्ञके द्वारा ही हो सकता है । जैनधर्मका स्वरूप सर्वज्ञदेवने कहा है, इसीलिये उनके कहे हुये आगमका अनेकांत ही प्राण है । अतएव जैनागम परम प्रमाण है । जिसप्रकार भित्तिका जीव मूलभूत वस्तु भित्तिकी जड़ है, बिना जड़ के वह ठहर नहीं सकती; रेलगाड़ीका Jain Education International [ १३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy