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पुरुषार्थसिद्धय पाय 1
न होने से भी एक कहलावेंगी। फिर पुस्तकको चौकी, चौकीको लोटा, लोटाको दावात आदि कुछ भी कहा जा सकता है। जगत्में वस्तुभेद न रहनेसे कार्यकारणभाव भी नहीं रह सकता, वैसी अवस्थामें किसीकी कोई कार्यसिद्धि नहीं हो सकती; इसलिए स्व-पर-विवक्षा मानना परम आवश्यक है। बिना उसके भाने वस्तुस्वरूप बनता ही नहीं। इसीलिए अस्तित्व और नास्तित्व, एकत्व और अनेकत्व, नित्यत्व और अनित्यत्व आदिमें परस्पर विरोध-सा मालूम होता है। अतएव स्याद्वाद एवं अनेकांतके स्वरूप से अनभिज्ञ-अन्य दर्शनवाले अनेकांतको परस्पर विरोधी धर्मवाला कहकर एकांतपक्षको पकड़ बैठे हैं, वह उनकी अल्पज्ञता एवं अजानकारीका परिणाम है, वास्तव में जो विरोधी सरीखे धर्म विदित होते हैं, वे विरोधी नहीं, किन्तु एक दूसरेके अविरुद्ध और सहायक हैं, यहां तक सहायक हैं कि एक धर्मको नहीं माना जाय तो दूसरा भी नहीं बन सकता । अस्तित्व और नास्तित्व एवं नित्यत्व और अनित्यत्व एक ही वस्तुमें दो परस्पर विरोधी धर्म कैसे ठहर सकते हैं, ऐसी आशंका लोगोंको क्यों होती है और उसका क्या परिहार है, उसका खुलासा इसप्रकार है___एक ही वस्तु नित्य भी कही जाय, और अनित्य भी कही जाय, अथवा एक भी कही जाच और अनेक भी कही जाय, ये दोनों बातें वास्तव में विरोधीहैं । जो नित्य है वह अनित्य नहीं हो सकता, जो एक है वह अनेक नहीं हो सकता; जब तक अपेक्षाबुद्धिसे काम नहीं लिया जाता, तब तक विरोधका उत्पन्न होना स्वाभाविक बात है। जैनदर्शनसे भिन्न दर्शनवाले जितने भी हैं। वे सब विचारे स्याद्वादकेअपेक्षारहस्यको जानते ही नहीं हैं; ऐसी अवस्थामें वे विरोधी धोका एक वस्तुमें रहना अस्वीकार करते हैं। परन्तु जैनधर्मने जो वस्तुस्वरूप बताया है, वह सब नयदृष्टिसे बताया है। यदि नयदृष्टि (अपेक्षातत्व) को छोड़ दिया जाय तो वास्तबमें विरुद्ध- धर्मोंका एक स्थानमें कहना सर्वथा अशक्य एवं अयुक
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