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________________ १.] [ पुरुषार्थसिद्धय पाय mmm...wmoran.in.www.mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm किसी विवक्षामे चौकीको काठ भी कहते हैं, और किसी विवक्षासे वृक्ष भी कहते हैं, किसी विवक्षासे उसे दृध भी कहते हैं; चौकी काठसे बनी है और चौकी रूप भी काठका स्वरूपान्तर है, इसलिए भूतपूर्वनय की अपेक्षा से अथवा वर्तमाननय की अपेक्षाले भी उसे काट कहा जा सकता है। पहले वह वृक्षरूपमें थी अथवा आगे पुनः हो जायगी, इस दृष्टिसे उसे वृक्ष कहने में भी कोई स्वरूपविपर्यास नहीं आता । यदि कालान्तरमें वृक्षरूप होकर उसके परमाणु दूध रूप धारण करले. तो उस चौकीको भविष्यत्नय की अपेक्षा दूध भी कह सकते हैं । इसीप्रकार नाना पर्यायोंकी अपेक्षा एक ही वस्तुको अनेक कह सकते हैं, एक पर्यायकी दृष्टिसे एक ही कह सकते हैं; गुणोंकी दृष्टिसे उसे नित्य और पर्यायदृष्टि से अनित्य कह सकते हैं। इसीप्रकार स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव इस स्व-चतुष्टयकी अपेक्षा वस्तु सप है, अर्थात् 'हैं' और पर-चतुष्टयकी अपेक्षा नहीं है अर्थात् असत् है । चोंकीरूप द्रव्यपिंटु स्वद्रव्य है, उसके खण्डकल्पनाजनित प्रदेश स्वक्षेत्र है, उसमें होनेवाली पर्यायें स्वकाल हैं, तथा उस चौकीमें रहनेवाले गुण स्वभाव हैं । उपयुक्न चारों ही प्रकार एक चौकीके स्वरूपसे भिन्नवस्तुस्वरूप नहीं है, इसलिए चौकी अपने स्वरूपकी अपेक्षा तो 'हैं' पर-पदार्थ पुस्तककी अपेक्षा नहीं है। क्योंकि पुस्तकका स्वरूप पुस्तकका ही है, वह चोरीला नहीं कहा जा सकता; इसलिए उस पुस्तकके स्वरूप-चतुष्टयकी अपेक्षा चौकीका नास्तित्व ही है । इसीप्रकार हरएक वस्तु निज-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा सत्रूप है, परद्रव्य-क्षेत्र काल-भावकी अपेक्षा वही असत्रूप है । यदि निजस्वरूपकी अपेक्षा भी वस्तुमें अस्तित्व-सत्ता न हो, तो वह वस्तु वस्तु ही नहीं ठहर सकती, अभावरूप अवस्तु ठहरेगी। यदि परस्वरूपकी अपेक्षा भी वस्तु कही नाय जैसे चार पायेकी चौकीका जो स्वरूप है, वही स्वरूप पुस्तकका भी माना जाय तो सभी वस्तुओंमें सांकर्य हो जायेगा; अर्थात् स्वरूपभेद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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