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________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय ] अंतर नहीं आता। इस प्रकार का परिणमन सदृशपरिणमन कहलाता है। सिद्धोंके आत्माका परिणमन भी सदृश-परिणमन है। जिस परिणमनमें वस्तु एक आकारको छोड़कर दूसरे आकारको धारण कर ले, उसे असमान (विसदृश ) परिणमन कहते है; जैसे-सोनेका, कड़ा (वलय) हो जाना, कड़ेसे अंगूठीका वन जाना, अंगूठीसे उसीका कर्णकुडल बन जाना; इत्यादि सभी परिणमन उस द्रव्यके विसदृशपरिणमन हैं । एक मनुष्यका बालकसे युवा होना, युवासे प्रौढ़ होना, प्रौढ़से वृद्ध होना, इत्यादि सभी अवस्थाभेद उस मनुष्यका विसदृश-असमान परिणमन है । ये सभी द्रव्यके परिणमन हैं, और व्यंजनपर्यायके नामसे कहे जाते हैं । दूसरे प्रकारका परिणमन गुणों का होता है । जैसे-आमके फलमें पहले हरे रंगका होना, पीछे पीले रंगका होना, अथवा हरे रंगसे पीला और लाल रंगका होना, पहले उसमें खट्टे रस का होना, पीछे परिपक्व होने पर मीठे रसका होना; इसीप्रकार खट्टे रसके रहने पर दूसरे प्रकारकी गन्ध का होना, मीठा रस होने पर दूसरे प्रकारकी गन्धका होना, आमके फलके कच्चे रहने पर कटोरताका होना, पकने पर उसका कोमल होना, ये सब परिणमन उस आम्रफलमें रहनेवाले रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि गुणोंके हैं । आत्मामें भी ज्ञान कभी मनुष्यको जानता है. कभी तिजोड़ीको जानता है, कभी जवाहरातको जानता है; कभी कपड़ेके भेदप्रभेदोंको जानता है । ये सब परिणमन एक ही ज्ञानगुणके हैं, इस गुण परिणमनको गुणपर्याय अथवा अर्थपर्याय कहते हैं। इन्हीं समस्त पर्यायोंके अनादिसे अनन्तकाल तक होनेवाले समूहको द्रव्य कहते हैं । इन्हीं पर्यायोंके कारण वस्तु अनन्तधर्म वाली कहलाती है, ये धर्म जीव और पुद्गल इन दो द्रव्योंमें भी परिनिमित्तसे विभावरूप भी धारण करते हैं; कभी परनिमित्तसे दूर होने पर स्वभावरूप धारण करते हैं। इन अवस्थाभेदोंके कारण ही वस्तु भी किसी विवक्षासे विवक्षित होती है और कभी किसी विवक्षासे । Jain Education Rernational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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