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________________ [पुरुषार्थसिद्धय पाय जीव' दिया गया है, इससे यह बात प्रगट की गई है कि यदि आगममें प्रमाणता आती है तो अनेकांतसे ही आती है, जिस आगममें अनेकांतदृष्टिसे निरूपण नहीं किया गया है, उस आगममें कभी प्रमाणता नहीं आ सकती; यही कारण है कि जैनधर्मको छोड़कर बाकी सभी आगम, आगम नहीं किन्तु आगमाभास हैं। इसका रहस्य इसप्रकार है कि दिगंबरजैनधर्मको छोड़कर समस्त धर्मों ने वस्तुस्वरूपका जो कुछ विवेचन किया है, वह एकांत-दृष्टिको लेकर ही किया है, परन्तु वस्तुका स्वरूप अनेक धर्मात्मक है। कोई भी ऐसी वस्तु संसारमें नहीं दीखती, जो प्रतिक्षणमें एक अवस्थासे दूसरी अवस्था न धारण करती हो । हर समय वस्तुओंमें दो प्रकारका परिणमन (पलटन) होता रहता है-एक तो उस वस्तुका एक आकारसे, दूसरा आकार होना, दूसरे उस वस्तुमें रहनेवाले गुणोंमें एक अवस्थासे दूसरी अवस्थाका होना । जैसे आमके फलका छोटेसे बड़ा हो जाना, उससे रसके निकालने पर गुठलीका अलग हो जाना, गुठलीको भून लेनेपर उसकी और ही अवस्थाका हो जाना, जिसके जलने पर उसकी भस्म हो जाना ये सब परिणमन उस एक ही आम के फलके हैं । इस प्रकार के द्रव्यके परिणमन को व्यंजनपर्याय कहते हैं, यह पर्याय दो प्रकारकी होती है-(१) समान (सदृश) परिणमनवाली और (२) असमान (विसदृश) परिणमनवाली । समान परिणमनवाली पर्याय उसे कहते हैं कि जिसका परिणमन तो प्रतिक्षण होता रहे परन्तु द्रव्यकी स्थूल पर्याय ज्योंकी-त्यों प्रतीत होती रहे, स्थूल पर्यायका स्वरूप विपर्यय न होकर जो परिणमन होता है, उसे समान (सदृश) परिणमन कहते हैं । जैसे-सुमेरु पर्वत, अकृत्रिम चैत्यालय, चन्द्र, सूर्य आदि ज्योतिश्चक्र । इन सबका परिणमन तो प्रतिक्षण होता है परन्तु सुमेरु अथवा अकृत्रिम चैत्यालय आदिके आकारमें कभी कोई प्रकारका स्वरूप विपर्यास नहीं होता। उनमेंसे अनेकों परमाणु निकल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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