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पुरुषार्थ सिद्धय पाय ]
पदार्थोको विषय करते हों तो फिर देवों को अवधिज्ञान सदैव होना चाहिये, परन्तु उन्हें सदैव नहीं होता किंतु वे जब जानने के लिये उद्यत होते हैं तभी जानते हैं । इसीलिये अवधि और मन:पर्ययज्ञान बारहवें गुणस्थान तक ही रहते हैं, जहाँ तक कि मन का सद्भाव है । जहाँ मन की सत्ता ही नहीं है, वहीं तेरहने गुण स्थान में केवलज्ञान साम्राज्य प्रगट होता है । वहां उपयोग की अपेक्षा न होने से युगपत् पदार्थों का परिज्ञान होता हैं । इसी बात को द्योतित करने के लिये 'सम' विशेषण दिया गया है । इस प्रकार परमर्षि आचार्यवर्य श्री अमृतचंद्र महाराज ने आत्मा के शुद्धस्वरूप में प्रगट होने वाले अचिंत्य, अविनश्वर, निर्विकार केवलज्ञान साम्राज्य का स्तवनरूप मंगलाचरण किया है, और उसीका प्रकाश जगत् में जयवन्त रहे ऐसी भावना प्रगट की है। तथा इसी केवलज्ञान गुण के स्वरूप निरूपण से उन्होंने श्री अहन्तदेव का स्वरूप एवं उनकी भक्ति भी द्योतित की है।
आगमनमस्कार
परमागमस्य जीवं निषिद्धजात्यंधसिंधुरविधानं। सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकांतं॥२॥
अन्वयार्थ—(परमागमस्य) उत्कृष्ट आगम अर्थात् जैनसिद्धांतका (जीव ) प्राणस्वरूप, (निषिद्धजात्यंधसिंधुरविधान) जन्मसे अंधे पुरुषों-द्वारा होनेवाले हाथीके स्वरूप विधानका निषेध करनेवाले, ( सकलनयविलसितानां ) समस्त नयोंकी विवक्षासे विभूषित पदार्थोके ( विरोधमथनं ) विरोध को दूर करने वाले (अनेकांत) अनेकांतधर्म 'स्याद्वाद' को (नमामि ) में (आचार्यवर्य श्रीमद्अमृतचंद्र महाराज ) नमस्कार करता हूँ। ___विशेषार्थ-अनेकान्त धर्म (स्याद्वादवाणी) को नमस्कार करते हुए श्रीआचार्य परमेष्ठीने उसके तीन विशेषण ऐसे दिये हैं जिनसे उस अनेकांत धर्मका असाधारण महत्व एनं सब धर्मोंसे श्रेष्ठता तथा वस्तुस्वरूपकी वास्तविकता प्रगट होती है । अनेकांतका पहला विशेषण 'परमागमका
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