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[ पुरुषार्थ सिद्धयुपाय
प्रकारकी हिंसाका परित्याग हो जाता है ऐसी अवस्थामें उसे उपचार से महाव्रती कहना असंगत नहीं है । क्योंकि महाव्रतमें भी त्रस स्थावर दोनों हिंसाओंका परित्याग है, वह दिग्वतीके कुछ अंशोंमें हो जाता है इसलिये उपचरित महाव्रती उसे कह दिया जाता है । जो स्थान सदा रहनेवाले होते हैं और प्रसिद्ध होते हैं उन्हीं स्थानोंको वह अपनी मर्यादा का चिह्न बना लेता है । ऐसे चिह्न हरएक दिशा में प्रसिद्ध प्रसिद्ध चीजों के बना लिये जाते हैं, जैसे दक्षिणमें जानेवाला यह चिह्न बना सकता है कि में दक्षिण दिशामें बम्बई नगरसे आगे कभी नहीं जाऊंगा और न उससे आगे के स्थानादि किसी वस्तुसे किसी प्रकारका संबंध ही रक्खूंगा । इसी प्रकार किसी दिशा में प्रसिद्ध पर्वत, किसीमें नदी, किसीमें जंगल, किसी में योजन ( कोशों ) का परिमाण आदि से प्रत्येक दिशामें नियमितरूप दृढ़ प्रतिज्ञा कर ली जाती है और वह सदाके लिये की जाती है ।
देशव्रतका स्वरूप
तत्रापि च परिमाणं ग्रामापणभवनपाटकादीनां ।" प्रावधाय नियतकालं करणीयं विरमण देशात् ॥ १३६ ॥ इति विरतो बहुदेशात्तदुत्थहिंसाविशेषपरिहारात् ।
तत्कालं विपुलमतिः श्रयत्यहिंसां विशेषेण ॥ १४०॥
अन्वयार्थ – [ चतत्रापि ] और उस दिखतमें भी [ ग्रामापणभवनपाटकादीनां ] ग्राम बाजार भवन- घर पाटक- ग्रामका कुछ हिस्सा आदि स्थानोंकी [ परिमाणं] मर्यादाको [नियतकालं विधाय ] किसी समयविशेष पर्यंत धारण करके [ देशात् विरमणं करणीयं ] देश मे विरक्ति कर लेना चाहिये । [ इति बहुदेशात् बिरतौ ] इसप्रकार बहुदेशसे विरक्ति हो जानेपर [ तदुत्थं हिंसाविशेषपरिहारात् ] उस बहुदेशमें होनेवाली हिंसाविशेषका परित्याग हो जाने से [ तत्कालं विमलमतिः ] उस समयतक वह निर्मलबुद्धिका धारी- देशबूती [ विशेषेण ] विशेषरूपसे [ अहिंसां श्रयति ] अहिंसाको पालता है ।
विशेषार्थ - जो मर्यादा दिखतमें ली जाती है, देशत्रतमें उसके भीतर ली जाती है, जैसे दिखतमें दक्षिणमें जानेकी मर्यादा किसीने बंबई तक १- किसी किसी प्रतिमें 'वाटिकादीनां' यह भी पाठ हैं, वहां उसका अर्थ 'बगींचा आदि' करना चाहिए।
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