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________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय ] [२८३ क्षेत्र में बाहर ( सकलासंयमविरहात् ) सम्पूर्ण असंयमका अभाव होनेसे (पूर्ण अहिंसावतं भवति) पूर्ण अहिंसावत होता है। _ विशेषार्थ-दिग्द्रतमें दिशाओंका परिमाण कर लिया जाता है कि पूर्व पश्चिम उत्तर दक्षिण ऊपर नीचे आदि दशों दिशाओंमें अमुक क्षेत्र, अमुक नगर, अमुक ग्राम, अमुक नदी, अमुक पर्वत, अमुक जंगल तक हम जा सकते हैं । इस नियत क्षेत्रसे आगे अपने किसी भी स्वार्थसाधनके लिये आगे नहीं जायेंगे । कोई भी निजी प्रयोजन कभी क्यों न हो, दिग्नती नियतक्षेत्रसे आगे नहीं जायेगा और न पत्रव्यवहारादि कारणकलापोंद्वारा वाह्मक्षेत्रसे संबंध ही रक्खेगा । इसलिये मर्यादितक्षेत्रसे बाहर उस दिग्वतीके न कभी त्रसहिंसा ही हो सकती है और न स्थावरहिंसा ही हो सकती है, ऐसी अवस्थामें उसके मर्यादितक्षेत्रसे बाहरके क्षेत्रमें महाव्रत पल जाते हैं । इसलिये दिग्वतीको एक अंशमें उपचारसे महावती कहा जाता है। यहांपर यह शंका उत्पन्न होती है कि जब मर्यादाके बाहर त्रसहिंसा स्थावरहिंसा दोनों प्रकारकी हिंसाका दिग्वती के सर्वथा परित्याग है तो फिर वह उपचारसे महाव्रती क्यों मुख्यरूपसे महाव्रती क्यों नहीं ? इसका उत्तर यह है कि उसे मुख्य महाव्रती इस. लिये नहीं कहा जा सकता कि वह अभी वास्तवमें तो देशवती है, महाव्रतका विरोधी प्रत्याख्यानावरण कषाय अभी उसके उदयमें आ रहा है कि सकलसंयमका विघातक है । इसलिये मर्यादितक्षेत्रके बाहरकी अपेक्षा भी उसे मुख्यतासे महावती नहीं कहा जा सकता। तीसरे महाव्रत नग्न दिगम्बर अवस्थामें होता है। दिग्वती गृहस्थके वह वाह्यनिमित्त भी अभी नहीं है। मर्यादाके भीतर तो वह हिंसासे बच ही नहीं सकता, कारण आरंभ आदि कारणोंसे स्थावरहिंसा व विरोधिनी त्रसहिंसा भी उससे हो जाती है । इसलिये उसे मुख्यतासे महाव्रती किसी अवस्था में नहीं कहा जा सकता । परंतु मर्यादाके बाहर वह सब प्रकारका सर्वथा संबंध छोड़ देता है इसलिये उस क्षेत्रमें उससे त्रस स्थावर दोनों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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