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[ पुरुषार्थ सिद्ध पाय
हट जानेपर जीव सम्यग्ज्ञानी एवं एकदेश व्रती बनकर सन्मार्गावलंबी हो जाता है यद्यपि केवल सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जानेपर भी सन्मार्गावलंबी जीव बन जाता है परन्तु वहां पर उस मार्ग पर वहपहुंचकर भी परमध्ये यकी प्राप्ति में प्रवृत्त नहीं हो पाता । परमध्ये यकी प्राप्ति में प्रवृत्ति किये बिना मनुष्य पर्यायकी सार्थकता नहीं हो पाती, कारण सम्क्यत्वप्राप्ति तो जीवको चारों ही गतियोंमें हो जाती है परन्तु मनुष्यपर्यायकी सार्थकता बिना चारित्रके नहीं होती इसलिये कमसे कम एकदेश - चारित्र धारण करके मनुष्य पर्यायको सफल बनाना प्रत्येक मनुष्यका कर्तव्य है, उसी पर्यायको लक्ष्य करके आचार्यका उपदेश है । इसलिये मिथ्यात्व और द्वितीयकषायके त्यागका आवश्यक उपदेश देकर बाकी कषायों के त्यागके लिये 'निजशक्त्या' पद उन्होंने दिया है । अर्थात् देशचारित्रको भी प्राप्त करना प्रत्येक गृहस्थका परमकर्तव्य है इसके पश्चात् बाकीके जो अंतरंग परिग्रह हैं - प्रत्याख्यानावरणकषाय, संज्वलनकषाय तथा नवनोकषाय, इनको भी अपनी शक्ति के अनुसार छोड़ना चाहिये । इनके छोड़नेके लिए उपाय भी ग्रंथकारने साथ ही बतला दिया है कि मार्दव शौच आदि भावनाओंको भाने से वह परिग्रह छोड़े जा सकते हैं । भावनाओंके भानेसे परिणामों में eat एवं विशेष निर्मलताकी वृद्धि होती है इसलिये भावनायें उन कषायवासनाओंके छुड़ाने में पूर्ण समर्थ हैं ।
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बाह्मपरिग्रह त्यागका उपदेश
बहिरंगादपि संगाद्यस्मात्प्रवभत्यसंयमो ऽनुचितः । परिवर्जयेदशेषं तमचित्तं वा सचित्तं वा ॥१२७॥
अन्वयार्थ – [ यस्मात् ] जिस [ बहिरंगात् अपि संगात् ] बाह्य परिग्रह से भी [ अनुचितः असंयमः ] अनुचित असंयम [ प्रभवति ] उत्पन्न होता है [ तं अचितं वा सचित्त वा ] उन अचित्त अथवा सचित [ अशेषं ] समस्त परिग्रह को [ परिवर्जयेत् ] छोड़ देना चाहिये ।
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