SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 288
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुरुषार्थसिद्धपाय ] सम्यग्दर्शनके प्रभाव से आत्मा धर्मकी दृढ़प्रतीतिवश बूतोंको स्वीकारकर उन्हें पालता है, विषयोंसे प्रवृत्तिको हटाता है, जीवोंकी रक्षामें सावधान भी होता है । इच्छाओंका निरोध भी करता है परन्तु यह सब कार्य उसका स्थाई नहीं रह सकता, वह चारित्रमोहनीयके तीव्र झकोरेसे विवखल एवं निर्मर्याद हो जाता है । उस अवस्थामें आत्मा इंद्रियोंको वशंगत करनेमें असमर्थ बन बैठता है, विषयोंकी ओर अनिच्छा होनेपर भी झुक पड़ता है । जीव हिंसासे भी विरत नहीं हो पाता ऐसी दशामें वह नियमित रूपसे व्रतोंको नहीं पाल सकता अतएव वह व्रतोंका अभ्यासी समझा गया है, वह उन्हें नियमितरूपसे नहीं किंतु अभ्यासरूपसे पालता है । इसीलिये पाक्षिक श्रावकको वृताभ्यासी कहा गया है न कि व्रतधारीनैष्ठिक | पाक्षिक श्रावक अभ्यासरूपसे किन्हीं वृतोंको पालनेपर भी प्रतिमारूपसे - नियमित क्रमवृत्तिसे व्रती नहीं कहा जा सकता । यही बात पंचम और चतुर्थगुणस्थानमें अंतर डालती है। जहां द्वितीय कषायका अनुदय हुआ वहीं कट आत्माके परिणाम उस जातिकी निर्मलता धारण कर लेते हैं कि झट व्रतों के पालन करनेमें आत्माकी निर्बाध प्रवृत्ति बनी रहती है । इसलिये सिद्ध होता है कि कर्मों का उदय आत्माके गुणोंको प्रगट होने नहीं देता । • शेष परिग्रहों के परित्यागका उपदेश निजशक्त्या शेषाणां सर्वेषामंतरंगसंगानां । कर्तव्यः परिहारो मार्दवशौचादिभावनया ॥ १२६॥ | २६६ अन्वयार्थ - [ शेषाणां सर्वेषां ] बाकी के समस्त [ अंतरंगसंगान ] अंतरंगपरिग्रहों का [ निजशक्त्या ] अपनी शक्तिके अनुसार [ मार्दवशौचादिभावनया ] मार्दव शौच आदि भावनाओंके द्वारा [ परिहारः कर्तव्यः ] त्याग कर देना चाहिये । Jain Education International विशेषार्थ - प्रथम तो मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी कषायोंको छोड़ना परम आवश्यक है, दूसरे द्वितीय कषायको छोड़ना चाहिये । इतना कर्मोदय For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy