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[ पुरुषार्थसिद्धथुपाय
संपत्तिको देख भी जाता है, परन्तु अपने पास कुछ वाह्य परिग्रह नहीं रखता है ऐसा मनुष्य भी, परिग्रहका वाह्य परिग्रह लक्षण करनेसे निष्परिगही -परिग्रहरहित ठहर जायेगा तथा जिन मुनीश्वरने अंतरंग बहिरंग सब परिग्रह छोड़ दिया है, केवल आत्मध्यानमें ही जो लीन रहते हैं एवं उसे ही मात्र निज संपत्ति समझते हैं, ऐसे नग्न दिगम्बर ध्यानस्थ मुनि महाराजके ऊपर यदि कोई अनाड़ी कंबल डाल जाय, मुनिमहाराज उसे उपसर्ग समझकर ध्यानमें लीन रहें तो वैसो अवस्थामें बिना अंतरंग ममत्व परिणामके भी वाह्यपरिगह लक्षण करनेसे मुनिमहाराज भी परिग्रहवाले ठहर जायेगे इसलिये परिगृहका लक्षण मूर्छा करना ही उचित है, उसके होते हुये फिर एक भी दोष नहीं आता है । जहां जहां मूर्खा है वहां वहां परिग्रह है, जहां जहां मूर्छा नहीं है वहां वहां परिगृह भी नहीं है, बिना ममत्व परिणामके मुनिके शरीरपर पड़ा हुआ कंबल भी उनका परिग्रह नहीं कहा जा सकता, और मोहजनित वासना रखनेवाला जंगलमें विचरनेवाला नग्न मनुष्य बिना बाह्य परिगृहके भो परिग्रही है इसलिये परिगृहका लक्षण मूर्छा- ममत्वपरिणाम करना ही सुसंगत है।
___वाह्यपरिग्रहमें परिग्रहपना है या नहीं यद्यवं भवति तदा परिग्रहो न खलु कोपि बहिरंगः। भवति नितरां यतोसौ धत्तं मू निमित्तत्वं ॥११३॥
अन्वयार्थ-( यदि एवं ) यदि इसप्रकार है अर्थात् परिग्रहका लक्षण मूर्छा ही किया जाता है ( तदा) उस अवस्थामें ( खलु कोपि वहिरंगः परिग्रहो न भवति ) निश्चयसे कोई भी वहिरंग परिवह. परिग्रह नहीं ठहरता है इस आशंकाके उत्तरमें आचार्य उत्तर देते हैं कि । भवति ) वाह्यपरिग्रह भी परिग्रह कहलाता है ( यतः ) क्योंकि ( असौ) यह वाह्यपरिग्रह (नितरां ) सदा ( मूर्छानिमित्तत्वं ) मूर्खाका निमित्तकारण होनेसे अर्थात् यह मेरा है ऐसा ममत्वपरिणाम वाहपरिग्रहमें होता है इसलिये वह भी मू के निमित्तपनेको ( धचे ) धारण करता है।
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