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________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय] [ २५५ अपने परिग्रहसे स्वत्व छोड़ चुके हैं अथवा दूसरोंको दानकर चुके हैं वह उनका परिग्रह नहीं कहलाता इसलिये यह निर्धारित बात है कि परिग्रह वास्तवमें ममत्व परिणामोंका नाम ही है । उसी ममत्व परिणामसे वाह्य परिग्रह भी उपचार परिग्रह कहलाता है । इसीलिये आचार्यमहाराजने मूर्खाको ही परिग्रह बतलाया है और मोहनीय कर्मके उदयसे होनेवाला जो ममत्व परिणाम-यह मेरा है यह तेरा है, इत्यादिरूप है वही परिणाम मूर्छा कहलाता है । यही परिग्रहका यथार्थ लक्षण है । जहां यह लक्षण घटित होता है वहांपर परिग्रहपना आता है, जहां नहीं घटित होता वहां वाह्यं परिग्रह रहते हुए भी परिगृह नहीं कहा जाता । इसलिये मूर्छा ही परिग्रह का निर्दोष लक्षण है। मुर्दा और परिग्रहकी व्याप्ति मूर्खालक्षणकरणात् सुघटा व्याप्तिः परिग्रहत्वस्य । सग्रंथो मूर्छावान् विनापि किल शेषसंगेभ्यः ॥११२॥ अन्वयार्थ-[ मूर्खालक्षणकरणात् ] परिग्रहका मूळ लक्षण करने [ परिग्रहत्वस्य } दोनों प्रकार-बहिरंग और अतरंग परिग्रहकी [व्याप्तिः सुघटा ] व्याप्ति अच्छी ताह घट जाती है [शेषसंगेभ्यः ] बाकी के सर परिग्रहोंसे [ बिना अप] रहित भी [ किल ] निश्चय करके [ मवान् ] मावाला [ सग्रंथः ] परिग्रहवाला है । ___ विशेषार्थ - यदि परिग्रहका लक्षण मूर्छा किया जाता है तब तो कोई दोष नहीं आता है, यदि परिगहका लक्षण वाह्य पदार्थों का संबंध आदि अन्य कुछ किया जाता है, तब उसमें व्यभिचार आदि दोष आते हैं। यदि जिसके पास वाह्य कुछ परिग्रहसंबंध है वही परिग्रही समझा जाय तो जिस मनुष्यने जंगलमें रहना स्वीकार कर लिया है, वस्त्र आदि कुछ भी वाह्य परिग्रह जिसने अपने पास नहीं रक्खा है नग्न ही सदा जो रहता है परन्तु घरवालोंसे मोहवासना जिसकी नहीं छटी है उन्हें वह व्यापारके उपाय एवं धनकी रक्षाके उपाय बतलाता है तथा कभी कभी अपनी सब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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