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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
जाते हैं, परन्तु जो स्वस्त्रीमात्रको छोड़नेमें असमर्थ हैं, अर्थात् जिनके इतना चारित्रमोहनीय कर्मका मंदोदय अभी नहीं हुआ है, जो अपनी स्त्रीका भी परित्याग करसकें उनके लिये आचार्य उपदेश देते हैं कि वे केवल स्वदार संतोषी तो नियमसे बन जांय, स्वस्त्रीको छोड़कर बाकी समस्त स्त्रियोंके सेवनका तो उन्हें नियमसे परित्याग करदेना चाहिये । वैसी अवस्था में वे एकदेश ब्रह्मचर्यके बारी कहे जा सकते हैं अन्यथा जिनके परस्त्रीका त्याग नहीं हैं, वे पशुवत् प्रवृत्ति रखनेवाले, महानीच, चारित्र से गिरे हुए मनुष्य हैं । ऐसा जीवन रखना पृथ्वीका भारभूत है ।
परिग्रहका लक्षण
या मूर्छा नामेयं विज्ञातव्यः परिग्रहो ह्येषः । मोहोदयादुदीर्णो मूर्छा तु ममत्वपरिणामः ॥ १११ ॥
अन्वयार्थ - (या ) जो ( इयं ) यह (मूल नाम ) मूर्छा हैं ( एपः हि ) यह ही (परिग्रहः ) परिग्रह ( ज्ञातव्यः ) जाननी चाहिए (तु) तथा ( मोहोदयात् ) मोहनीय कर्म के उदयसे (उदीर्ण) उत्पन्न हुआ (ममत्व परिणाम:) ममतारूप परिणाम (सूर्च्छा) मूर्च्छा कहलाता है ।
विशेषार्थ - धनधान्यादि परिग्रहको संसार परिग्रह बतलाता है परन्तु वास्तवमें धनधान्यादि परिग्रह तभी परिग्रह कहा जाता है जब कि उसमें ममत्त्व - परिणाम हो, बिना ममत्व - परिणाम के किसीका कुछ परिग्रह नहीं कहा जाता । यदि ध्यान में बैठे हुए मुनिमहाराज के समीप बहुतसा द्रव्य रख दिया जाय तो वह द्रव्य उनका परिग्रह नहीं कहा जा सकता कारण कि उससे उनके परिणामों में किसी प्रकार का रंचमात्र भी ममत्व नहीं है । यदि कहा जाय कि मुनिमहाराज के तो उस धनधान्य परिग्रह से स्वत्व नहीं है जिनका उससे स्वत्वभाव है उनका तो वह परिग्रह कहलाता ही है । इसके उत्तरमें यही समझ लेना ठीक है कि स्वत्व भी उन्हींका कहा जाता है कि जिनका कि उस बाह्यपरिग्रहसे आत्मीयभाव है अर्थात् जो मोहितबुद्धिसे उसे अपना समझ रहे हैं जो
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