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________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय ] [२५३ अन्वयार्थ-[ यदपि ] जो भी [ किंचित् मदनोद्रेकात् ] कुछ कामके प्रकोपसे [ अनंगरमणादि ] अनंगक्रीडन आदि [ क्रियते ] किया जाता है । तत्रापि ] वापर भी । रागाधुत्पतितन्त्रत्वात् ] रागादिककी उत्पत्ति प्रधान होनेसे [ हिंसा भवति ] हिंसा होती है। विशेषार्थ-बिना तीन रागोदयके अनंगरमणादि दुष्क्रिया हो ही नहीं सकतीं, स्त्रीपुरुषकी संभोगक्रियाको छोड़कर बाकी अंगभिन्न उपांगोंके साथ वेदरागकर्मके तीव्रोदयसे क्रिया की जाती है, वह भी रागमूलक होनेसे तीन पापबंधका कारण है । इसलिये ब्रह्मचर्य पालन करनेवालोंको वह भी सर्वथा परित्याग करने योग्य है। कुशीलत्यागका उपदेश ये निजकलत्रमात्रं परिहर्तुं शक्नुवंति नहि मोहात् । निःशेषशेषयोषिनिषेवणं तैरपि न कायं ॥११॥ अन्वयार्थ--[ ये ] जो पुरुष [ मोहात् ] चारित्रमोहनीय कर्म के उदयसे [ निजकलत्रमात्र] अपनी स्त्रीमात्रको [ परिहतु ] छोड़नेके लिये [न हि शक्नुवंति ] निश्चयसे नहीं समर्थ हैं [ तैरपि ] उन्हें भी [ निःशेषशेषयोषिनिषेवणं ] बाकीकी समस्त स्त्रियोंका सेवन [ न कार्यं ] नहीं करना चाहिये । __विशेषार्थ-सबसे उत्तम पक्ष यही है कि जिन परिणामोंमें वीतरागभाव जागृत रहें उन्हें ही सदा धारण किया जाय, वास्तवमें तो वहींपर आत्मा को शांति मिलती है। इसके लिये जैनसिद्धांतका प्रथम उपदेश है कि स्वस्त्री और परस्त्री सबोंका परित्यागकर उत्तम ब्रह्मचर्यव्रत धारण करना चाहिये । परन्तु सबोंके लिये यह मार्ग नितांत कठिन अथवा असंभव ही है । क्योंकि गृहस्थधर्मका प्रवाह भी तो अनिवार्य मार्ग है । गृहस्थाश्रममें रहनेवाले जो पुरुष स्वदारसंतोषी हैं वे भी एकदेश ब्रह्मचर्यव्रतके धारण करनेवाले हैं। इसलिये वे भी कुशीलत्यागी कहे जाते हैं परन्तु यह पक्ष मध्यम है । कारण स्वस्त्रीसंतोष रहनेपर भी अपनी स्त्रीमात्रमें रागपरिणति तो होती ही है इसलिये उसे भी छोड़नेवाले उत्तमब्रह्मचर्यधारी कहे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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