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________________ २५२ ] करनेसे अनेक जीवोंका, जो कि सूक्ष्मरूपसे योनिस्थानमें रहते हैं उनका वध भी हो जाता है इसलिये द्रव्यहिंसा भी होती है अतः अब्रह्म भी हिंसा ही है, प्रमादभाव वहां है ही । [ पुरुषार्थसिद्धय पाय wwwww मैथुन में हिंसा हिंस्यंते तिलनाल्यां तप्तायसि विनिहिते तिला यद्वत् । बहवो जीवा योनौ हिंस्यंते मैथुने तद्वत् ॥ १०८ ॥ अन्वयार्थ – [ यद्वत्ः ] जिसप्रकार [तिलनाल्यां] तिलनाली में [ तप्तायसि विनिहिते] तपाये हुए लोहे के छोड़ने पर [तिलाः हिंस्यंते] तिल पीडे जाते हैं-भुन जाते हैं [तद्वत् ] उसीप्रकार [योनौ ] योनि में [ मैथुने ] मैथुन करते समय [ बहवो जीवाः ] अनेक जीव [ हिंस्यंते ] मारे जाते हैं । विशेषार्थ - स्त्रियोंका योनिस्थान - जो कि स्त्रीनामकर्मके उदयसे द्रव्यचिह्नरूप होता है - अत्यंत मलिन स्थल होता है । वह सदा मलसे आई ही रहता है, उसमें मलसे उत्पन्न अनेक जीवराशि रहती है, वह सब जीवराशि मैथुनक्रियामें नष्ट हो जाती है। जिसप्रकार तिलोंकी घानी में यदि अग्निसे संतप्त लोहा छोड़ दिया जाय तो घानीके सभी तिल एकदम जल जाते हैं, उसीप्रकार मैथुन करनेसे अतिसूक्ष्म असंख्य जीव नियमसे नष्ट हो जाते हैं। इसके सिवा स्त्रियोंके कांख स्तन आदि प्रदेशों में भी जीव रहते हैं, हस्तादि व्यापारसे वे सब भी नष्ट हो जाते हैं । इसप्रकार अनंत जीवराशिकी हिंसा करनेवाले मैथुन दुष्कर्मका अवश्य परित्याग कर देना ही उचित है । मैथुन परिणाम तीव्र रागोदयसे होता है और तीव्र रागका उत्पादक है, अतः सर्वथा मैथुनसेवन छोड़कर ब्रह्मचर्य व्रत प्रत्येक बुद्धिमानको धारण करना चाहिये । अनंगरमण निषेध यदपि क्रियते किंचिन्मदनोद्र कादनं गरमणादि । तत्रापि भवति हिंसा रागाद्युत्पत्तितन्त्रत्वात् ॥१७६॥ For Private & Personal Use Only Jain Education International . www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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