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________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय ] [ २५१ लेनेसे मालिककी कुछ हानि नहीं होती है, इसलिये स्थूलदृष्टिसे वे बातें व्यवहारमें चोरी में शामिल नहीं भी की जाती हैं, वास्तवमें वे चोरीमें शामिल हैं ही, इसीलिये श्रीआचार्य महाराज लोकव्यवहार और सिद्धांत दोनोंकी दृष्टि रखकर कहते हैं कि जो ऐसी ऐसी व्यवहारमें आनेवाली बातोंको नहीं छोड़ सकते, वे बाकी के समस्त चोरीरूप पापको - जो कि लोकमें भी चोरीरूपसे प्रसिद्ध समझा जाता है, नियमसे छोड़ दें । सबसे उत्तम मार्ग तो यही है कि परद्रव्यको बिना आज्ञाके ग्रहण ही न किया जाय परंतु जिन द्रव्योंका ग्रहण लोकनिषिद्ध नहीं है उनके सिवा वाकी समस्त परद्रव्यका ग्रहण बिना मालिककी आज्ञाके नहीं करना यह द्वितीय पक्ष है । मैथुनका लक्षण यद्वेदरागयोगान्मैथुनमभिधीयते तदब्रह्म अवतरति तत्र हिंसा बधस्य सर्वत्र सद्भावात् ॥ १०७॥ अन्वयार्थ – [ यत् वेदरागयोगात् ] पु'वेद और स्त्रीवेदरूप रागपरिणामके संबंध से [ यत् ] जो [ मैथुनं ] स्त्री पुरुषोंकी कामचेष्टा होती है । तत् ] उसको [ अ ] अब्रह्म [ अभिधीयते ] कहते हैं । [ तत्र सर्वत्र ] वहां सब अवस्थाओं में [ वधस्य सद्भावात् ] जीवों का वध होनेसे [ हिंसा अवतरति ] हिंसा घटित होती हैं 1 विशेषार्थ - वेदकर्म दो प्रकारका है एक नामकर्मका भेद, एक चारित्र - मोहनीयका भेद | जो नामकर्मका भेदरूप वेदकर्म है उसके उदयमें शरीर में द्रव्यरूप वेदरचना होती है, वह रचनामात्र जीवके भावोंमें विकार नहीं कर सकती किंतु चारित्रमोहनीयके भेदस्वरूप वेदकर्मके उदयमें यह जीव विषयोंमें प्रवृत्ति करनेकेलिये प्रवृत्त होता है इसलिये जहांपर वेदकर्म के उदयसे स्त्री पुरुषों में अथवा पशु पक्षियोंमें नर-मादाओं में जहां परस्पर रमण करनेकी वाञ्छापूर्वक कामचेष्टा होती है वहींपर मैथुन कहा जाता है । वही ब्रह्मचर्य का प्रतिकूल दोष है, इसके होनेसे जीवका ब्रह्मचर्यरूप स्वभाव नष्ट हो जाता है इसलिये भाव हिंसा भी होती है और मैथुनसेवन For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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