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[पुरुषार्थसिद्धथु पाय
किया जाता किंतु स्वयं हो जाता है जिसप्रकार लोहेमें अग्नि रहने से पानीके परमाणु स्वयं लोहे में खिंच आते हैं उसीप्रकार योग और कषायों से कर्म आत्मामें स्वयं खिंच आते हैं । सबसे अन्तिम और मुख्य बात यह है कि चोरी वहीं समझी जाती है जहां प्रमादयोग है, बिना प्रमादयोग के चोरीका लक्षण ही घटित नहीं होता, वीतराग मुनियोंके निष्कषाय एवं निरीह परम वीतराग होनेसे प्रमादयोग का उनमें नाम भी नहीं है। इसलिये कारणके अभावमें कार्य भी नहीं हो सकता, उनके प्रमादयोगरूप कारणका अभाव होनेसे चोरीरूप कार्य भी नही घटित होता । जहां प्रमादपरिणाम नहीं है वहां हिंसा का लक्षण भी नहीं घटित होता इसलिये चोरी और हिंसा इन दोनों में अतिव्याप्ति भी नहीं है।
चोरी छोड़ने का उपदेश असमर्था ये कतुं निपानतोयादिहरणविनिवृत्तिं ! तैरपि समस्तमपरं नित्यमदत्त परित्याज्यं ॥ १०६॥ अन्वयार्थ-( ये ) जो पुरुष (निपानतोयादिहरणनिवृत्ति ) कूपजल आदिके हरण करने की निवृत्तिको ( कर्तुं असमर्थाः ) करने के लिये असमर्थ हैं ( तैरपि ) उन पुरुषों के द्वारा भी ( अपरं समस्तं अदत्त) दूसरो समस्त विना दिया हुआ द्रव्य ( नित्यं ) सदा (परित्याज्ये। छोड़ देना चाहिये। __विशेषार्थ- स्वामीके बिना पूछे कुएसे जल लेना वास्तवमें चोरीमें सामिल है कारण जो वस्तु दी ली जा सकती है वही चोरीमें शामिल है । यदि कूएका स्वामी अथवा जमीनका स्वामी जल लेनेकी मनाई करदेवे तो जवरन कोई उस कूएसे जल नहीं ला सकता। क्योंकि कूआ भी जमीनके समानके सम्पत्तिमें शामिल है इसलिये बिना आज्ञाके कूएसे जलग्रहण करना मिट्टी उठा लेना आदि सब बातें भी चोरीमें सामिल हैं, परंतु गृहस्थलोग इन व्यौहारोंके छोड़नेमें असमर्थ हैं दूसरे जल मिट्टी आदिका ग्रहण सब कोई बिना पूछे करते रहते हैं तीसरे उनके
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