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________________ पुरुषार्यसिद्धय पाय ] [२४९ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm ___ विशेषार्थ-यदि कोई यह कहे कि जो वीतराग मुनियोंके कर्मों का ग्रहण होता है वहां भी चोरीका लक्षण घटित होता है, बिना दिये हुए द्रव्यका ग्रहण करना चोरी है, कर्म भी बिना दिये हुए ही ग्रहण किये जाते हैं इसलिये वहां चोरी का लक्षण चला जाता है परंतु वीतराग मुनि चोरीसे रहित हैं इसलिये वे अलक्ष्य हैं, अलक्ष्यमें लक्षण जाना ही अतिव्याप्ति है। इसके उत्तर में कहते हैं कि वीतराग मुनियोंमें चोरीका लक्षण जाता ही नहीं है कारण कि चोरीका लक्षण वहींपर जाता है जहाँपर किसी वस्तुका दान अदान अथवा देन लेनका व्यौहार होता है अर्थात् जो वस्तु दी जा सकती हो या ली जाती हो या ली सकती हो, वही चोरीके कार्य में सम्हाली जा सकती है । जो वस्तु न दी जा सके और न ली जा सके । जो मनुष्यकी ग्रहणशनि एवं आंखोंके भी अगोचर है उसमें लेने देनेकी योग्यताही नहीं है, कर्म अत्यन्त सूक्ष्मनेद्रिय अगोचर पुद्गल परमाणु-स्कंध हैं । उनका ग्रहण जीवके मन वचन काययोग और कषायभावोंसे सुतरां-अपने आप होता है । इसलिये जीव उन्हें ग्रहण नहीं करता किन्तु उनका ग्रहण विकार भावोंसे स्वयं होता है । दूसरे वे कर्म किसी की वस्तु नहीं है किंतु संसारमें भरी हुई वर्गणाएं हैं जिसप्रकार वायु सर्वत्र भरी है उसका उपयोग बिना इच्छाके भी प्रत्येक व्यक्ति को करना पड़ता है उसीप्रकार कर्मों का उपयोग भी बिना इच्छाके प्रत्येक संसारी को करना पड़ता है जैसे वायुका उपयोग चोरीमें शामिल नहीं है वैसे कर्मों का उपयोग भी चोरीमें शामिल नहीं है। चोरी वहींपर समझी जाती है जहां किसीका द्रव्य अपहरण किया जाय, कर्म तो किली का द्रव्य नहीं है । तीसरे जहां इच्छापूर्वक प्रवृत्ति है वहीं पर चोरी का दोष आता है कर्मके ग्रहण करनेकी किसी जीवकी इच्छा भी नहीं होती, अन्यथा नरकादि गति योग्य निकृष्ट कर्मों को कोई कभी नहीं ग्रहण करता और न कोई संसार में घूमना पसंद ही करता है इसलिये कर्मग्रहण इच्छासे नहीं ३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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