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________________ २४८ ] हिंसा और चोरी में अव्धाप्ति नहीं है हिंसायाः स्तेयस्य च नाव्याप्तिः सुघट एव सा यस्मात् । ग्रहणे प्रमत्तयोगो द्रव्यस्य स्वीकृतस्यान्यैः ॥ १०४ ॥ [ पुरुषार्थसिद्धय, पाय अन्वयार्थ – [ हिंसायाः ] हिंसाकी [च] और [ स्तेयस्य ] चोरीकी [न अव्याप्तिः ] अव्याप्ति नहीं है [ यस्मात् ] क्योंकि [ अन्यैः स्वीकृतस्य द्रव्यस्य ] दूसरोंके द्वारा स्वीकार की गई द्रव्य के [ ग्रहणे ] ग्रहण करनेमें [ प्रमत्तयोगः ] प्रमादयोग [ सुघट एव 'तस्मात् ' ] अच्छी तरह घटता है इसलिये [ सा 'अस्त्येव' ] हिंसा वहां होती ही है । विशेषार्थ — लक्षण अपने लक्ष्यके एकदेशमें यदि न रहे तो उस लक्षणको अन्याप्ति दोषयुक्त लक्षण कहते हैं ऐसा लक्षण ठीक नहीं समझा जाता, यहाँ पर यह विचार करना है कि चोरीको हिंसा बतलाया है सो क्या चोरीमें हिंसाका लक्षण घटता है या नहीं ? इसके उत्तर में कहते हैं कि हिंसा और चोरीमें अव्याप्ति नहीं है जहां चोरी है वहां हिंसा अवश्य है । क्योंकि हिंसाका लक्षण प्रमादयोग बतलाया गया है वह प्रमादयोग चोरी में घटित होता ही है । जो द्रव्य दूसरेका है उसके लेनेमें प्रमाद परिणाम - सरागभाव है । बिना हड़प लेने के अभिप्रायके कोई किसीका द्रव्य नहीं चुरा सकता, जहां चुरा लेनेका भाव है वहां बुरा अभिप्राय है । प्रमाद परिणाम ही हिंसाका लक्षण है । इसलिये चोरी और हिंसामें अव्याप्ति नहीं है । अतिव्याप्ति भी नहीं है नातिव्याप्तिश्च तयोः प्रमत्तयोर्गेककारणविरोधात् । अपि कर्मानुग्रहणे नीरागाणामविद्यमानत्वात् ॥१०५॥ अन्वयार्थ – [ प्रमत्तयागैककारणविरोधात् ] प्रमादयोगरूप एक कारणका विरोध होनेसे [ अपि ] और [ कर्मानुग्रहणे ] कर्मके ग्रहण करनेमें [ नीरागाणां ] वीतराग मुनियों के अविद्यमानत्वात् ] प्रमादयोगका अभाव होनेसे [ तयोः ] उन चोरी और हिंसा में [ अतिव्याप्तिश्च न ] अतिव्याप्ति भी नहीं है । [ मूका है, अर्थ में कोई भेद नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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