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________________ २४४ ] [ पुरुषार्थसिद्धषपाय विद्वषोत्पादक ( भीतिकरं ) भय उत्पन्न करनेवाला ( खेदकर ) चित्तमें खेद-पश्चात्ताप उत्पन्न करनेवाला (वैरशोककलहकरं ) शत्रता उत्पन्न करनेवाला, शोक उत्पन्न करनेवाला, लड़ाई झगड़ा उत्पन्न करनेवाला ( यद् अपरं अपि ) और जो भी ( परस्य ) दुसरेको ( तापकर ) संताप-कष्ट देनेवाला वचन है । तत् सर्व ) वह समस्त ( अभियं ) अप्रिय-असुहावना-श्रवण कटु वचन । शयं ) समझना चाहिये। विशेषार्थ-ऊपर कहे हुए सभी अप्रियवचन हैं ऐसे वचनोंका प्रयोग कभी नहीं करना चाहिये जो सुनते ही दूसरोंके परिणामोंमें क्षोभ पैदा करनेवाले हों । अनेक अज्ञानी जीव ऐसे ही वचनों द्वारा अपने और दूसरोंके आत्माओंमें निरन्तर अशुभ कर्मवंध करते कराते रहते हैं । ___ झुठ वचनसे हिंसा होती है सर्वस्मिन्नप्यस्मिन् प्रमत्तयोगैकहेतुकथनं यत् । अनृतवचनेपि तस्मानियतं हिंसा समवस(त)रति॥६६॥ अन्वयार्थ-( अस्मिन् सर्वस्मिन् अपि ) इस समस्त निरूपणमें ही ( यत् ) क्योंकि (प्रमत्तयोगैकहेतुकथनं ) एक प्रमादयोग ही जिसमें कारण है ऐसा कथन होता है । ( तस्मात् ) इसलिए ( अन्तवचनेपि ) झूठ वचनमें भी ( हिंसा नियलं ) हिंसा नियममे ( समवसरति वा. समवतरति ) होती है। विशेषार्थ--आचार्यों ने हिंसाका लक्षण यही कहा है कि जहां प्रमादयोगसे प्राणोंका घात किया जाता है वहीं हिंसा होती है । लक्षणसे जितने भी कार्य प्रमादयोगसे दूसरेके तथा अपने प्राणोंको घात करनेवाले सिद्ध होते हैं वे सब हिंसामें गर्भित हैं । निंद्य, सदोष और अप्रियवचन भी प्रमादयोगसे ही बोला जाता है इसलिये वह वचन भी हिंसामें गर्भित है। अर्थात् इन वचनोंसे जीवके प्राण पीडे जाते हैं। जहां सरल परिणाम होते हैं वहां निंद्य सदोष एवं अप्रियवचन नहीं निकलता । अथवा प्रमादयोगके बिना यदि वचनोंमें कठोरता भी है तो भी वह वचन अप्रिय कठोर प्रतीत नहीं होता, कषायभावोंसे प्रयुक्त वचन ही भूट एवं हिंसोत्पादक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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