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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
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अप्रमत्तपरिणाम में हिंसा नहीं है
eat प्रमत्तयोगे निर्दिष्टे सकल वितथवचनानां । हेयानुष्ठानादेरनुवदनं भवति नासत्यं ॥ १०० ॥
अन्वयार्थ - ( सकल वितथवचनानां ) समस्त झूठ वचनोंका (प्रमत्तयोगे हेतौ निर्दिष्टे ) प्रमादयोगको ही कारण बतलानेपर ( हेयानुष्ठानादेः अनुवदनं त्याज्य बात के विधानका कथन ( असत्यं न भवति ) असत्य नहीं है ।
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विशेषार्थ - समस्त झूठवचनोंका कारण प्रमादयोग है, अर्थात् प्रमादपरिणामों से जो वचन कहे जाते हैं वे सब झूठ हैं । जब यह बात है तब कोई ब्रह्मचारी आदि किसीसे व्यसनादि पापोंको छोड़नेके लिए जो जोर देते हैं उनका वचन भले हो उस पापिष्ठ पुरुषको बुरा एवं अप्रिय मालूम पड़ता हो परन्तु कहनेवालेका उद्देश्य उसका भला करनेका है इसलिए कहनेवाले के वचनों में प्रमादपरिणाम न होनेसे वे वचन असत्यकोटिमें नहीं शामिल किये जा सकते हैं ।
यदि कोई शंका करे कि किसी पापको अथवा अनुपसेव्य अग्राह्यवस्तु को छुड़ाते समय जो वचन कहे जाते हैं वे भी तो अप्रिय एवं कठोर होते हैं वहां हिंसाका दूषण क्यों नहीं लगता और अव्याप्तिदोष क्यों नहीं आता, क्योंकि जितने कठोर अप्रियवचन हों, उन सबमें असत्यता और हिंसोत्पादकता आनी चाहिए, वह त्याग करानेवालेके वचनमें भी आनी चाहिए । इस शंकाका परिहार ही इस श्लोकमें किया गया है कि जहां प्रमादपरिणाम है वहांपर वचनमें दूषण हैं, जहां प्रमादपरिणाम नहीं है वह वचन निर्दोष है ।
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व्यर्थ का झूठ तो छोड़ो
भोगोपभोगसाधनमात्र सावद्य मक्षमा मोक्तुं । ये तेपि शेषमनृतं समस्तमपि नित्यमेव मुञ्चतु ॥ १०१ ॥
अन्यवार्थ - ( ये ) जो पुरुष ( भोगोपभोगसाधनमात्रं ) भोग उपभोग सामग्रीके इकट्ठा
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