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________________ [ पुरुषार्थसिद्धय पाय बगुला, भेड़िया, सिंह, चीता, मयूर, नकुल आदि बहुतसे एक दूसरे के विरोधी और भक्षक ही हैं । ये ज्ञानहीन पशुपक्षी हैं, 1 अपने स्वभावानुसार पापबंध करते ही रहते हैं । उन्होंने ऐसी ही नीचपर्याय पायी है जिसमें कि जीवभक्षण अनिवार्य ही है । फिर विवेकशील, ज्ञानी एवं सदाचारी मनुष्य पर्याय पाकर तुम क्या रक्षाके बहानेसे अनेक जीवोंका बध करके स्वयं हिंसक बनते हो ? तीसरे - कहां तक तुम इसप्रकार रक्षाकर सकते हो ? एक बिल्ली को मार दोगे, दोको मार दोगे फिर भी बिल्लियोंका अस्तित्व नहीं जा सकता । इसीप्रकार अन्यान्य पशुपक्षियोंकी सर्वत्र अनेक संख्या है । और ऐसा करनेसे तुम अनेकोंकी रक्षा करके एकको मारनेवाले कहां रहे किंतु अनेकोंके मारनेवाले ठहर गये । इसलिये अनेकोंकी रक्षाके लिए एककी हिंसा करनेका महानीच तथा तीव्र पापबंधका कारण दुर्विचार बुद्धिमान पुरुषोंको करना सर्वथा अनुचित एवं त्याज्य है । यह बात आबालगोपाल प्रसिद्ध है कि जो हिंसा करता है, दूसरेको कष्ट पहुंचाता है वही पापका भागीदार होता है । विवेकी पुरुषोंको उचित है कि अपनी शक्तिके अनुसार हरएक जीवकी रक्षा करें, अपने द्वारा किसी प्राणीको कष्ट नहीं होने देवें और उनके द्वारा जो रक्षा आवश्यक है उसकेलिये वे प्रतिहिंसा के भाव न करें; किंतु वस्तुस्वरूप विचारकर समताभाव धारण करें । संसार में ऐसा कोई शासन हो ही नहीं सकता है जो समस्त जीवोंके परिणामोंको अहिंसक बना डाले, जिनकी उत्पत्ति स्वभावतः क्रूरपर्याय में होती है उनके भावों को अहिंसक नहीं बनाया जा सकता । इसी जगत्स्वरूपके विचारसे परमदिगम्बर श्री मुनिमहाराज त्रस स्थावर की हिंसा के बचाव के लिये देखदेखकर गमन करते हैं, पीछी कंमडलु शास्त्रजीको देखकर उठाते वा रखते हैं, हर प्रकारसे अपने शरीर द्वारा जीववध नहीं होने देते। वे संसार के जीवोंको उपदेश करते हैं। कि हिंसा करना पाप है परंतु उन्हें हिंसा करते हुए देखकर भी सामर्थ्यपूर्वक रोकनेकेलिये कभी www.jainelibrary.org २३० ] Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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