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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
उद्यत नहीं हो सकते, कारण वे जगत् से परम उदासीन स्वयं आत्मरसास्वादन में निमग्न हैं । सामर्थ्यपूर्वक दूसरोंको रोकना तो दूर रहा, वे किसीको उपदेश के सिवा आदेश नहीं भी कर सकते, यह बात उनके परमश्रेणी वीतरागमुनिपद के विरुद्ध है । वे इसप्रकार दूसरोंके निमित्तसे कहांतक पररक्षण कर सकते हैं और उनके निमित्तमे अपने परिणामोंको सकषाय एवं साकुल बना सकते हैं ? इसलिये वे ऐसे अवसरों पर उपसर्ग समझकर मौनसे रहते हैं । तात्पर्य यह है कि वे वहीं तक पररक्षण करते हैं जहांतक कि उनके आत्मसाधन में किसीप्रकार न्यूनता नहीं आती । इंद्रिय और कषायमात्रको जीतनेवाले उन मुनियोंकी प्रवृत्ति केवल आत्महितसाधन की ओर ही प्रमुखता से झुकी रहती है, वीतराग परतिमें उनके कभी कोई विकार नहीं आता। ऐसे वीतरागी जीवमात्र के ऊपर दयाभाव धारण करनेवाले श्रीऋषीश्वर ही कर्मबंधन काटकर मोक्ष लक्ष्मी का वरण करते हैं । इसलिये उसी उच्चादर्शके अनुसार प्रत्येक मनुष्यको वहींतक परोपकार एवं पररक्षण करना उचित है जहांतक कि आत्मस्वरूपका घात न हो । यदि जीवकी रक्षाके निमित्त से आत्मा परमदयाल स्वभावसे च्युत हो जाय अथवा उसे हिंसामें प्रवृत्त होना पड़े तो वह पररक्षण नहीं किंतु स्वात्मध्वंसन है । ऐसा समझकर सन्मार्ग से गमन करना ही बुद्धिमत्ता है ।
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और भी
बहुमत्त्वघातिनोमी जीवंत उपार्जयंति गुरुपापं । इत्यनुकंपां कृत्वा न हिंसनीयाः शरीरिणो हिंस्राः ॥ ८४॥
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अन्वयार्थ – ( अमी ) ये ( बहुत्वघातिनः ) बहुत जीवोंकी हिंसा करनेवाले हिंस्रक जीव (जीवंत ) जीते हुए ( गुरुपापं ) बहुत पापको ( उपार्जयंति ) इकट्ठा करते हैं (इति) इस प्रकार ( अनुकंपां ) दयाको ( कृत्वा ) करके ( हिंस्राः ) हिंसा करनेवाले (शरीरिण: ) शरीरधारी - जीव (न हिंसनीयाः ) नहीं मारने चाहिये ।
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