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पुरुषार्थसिद्धय पाय
धर्म में मूह बुद्धि रखनेवाले हृदयसहित (भूत्वा ) बनकर ( जातु ) कभी ( शरीरिणः) प्राणी ( न हिंस्या: ) नहीं मारने चाहिये ।
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विशेषार्थ – संसारमें अनेक अज्ञानी मनुष्य पापमें ही धर्म मान बैठे हैं । ऐसे लोगोंको मार्ग बतानेवाले उनके शास्त्र बतलाते हैं कि ईश्वरने जो धर्मका व्याख्यान किया है वह अत्यन्त सूक्ष्म है इसलिए धर्म के लिए जो जीवोंकी हिंसा होती है उसमें कोई दोष नहीं है । हिंसामें दोष क्यों नहीं है इसका उत्तर वे लोग कुछ नहीं दे सकते । केवल इतना ही कहते हैं कि धर्मका स्वरूप सूक्ष्म होनेसे कुछ नहीं जाना जा सकता कि हिंसामें धर्म क्यों है ? इसप्रकार वे धर्मसेवनमें मूढ़ बनकर अनेक जीवोंका अपने ईश्वर के नामपर वध करते हैं । यज्ञों में संज्ञी पंचेन्द्रिय पशुओं को बुरी तरह होम देते हैं, देवताओंके नामपर पशुओंकी बलियां चढ़ाते हैं, अनेक मार्गो से तीव्र हिंसा करते हैं, फिर भी दुष्ट धर्म कहकर उस जीवसंहारसे पुण्य समझते हैं । परन्तु उनकी ऐसी समझ अत्यन्त विपरीत और खोटी है जीवों की हिंसा करने में कभी धर्म नहीं हो सकता । जिस जीवको धर्मके नामसे मारा जाता है उसको कितना तीव्र दुःख होता है यह बात किसीसे छिपी नहीं है, तो क्या किसी जीवको मरण वेदनाका कष्ट पहुंचाना भी कभी पुण्यबंधका कारण हो सकता है, वह तो नितांत अधर्म है, जीवोंका घात करनेवाला कषायी है, वह नरकगामी है । यह बात भी कुबुद्धिधारक पुरुषोंने मिथ्या ही मान रक्खी है कि-धर्म सूक्ष्म है, उसका पता नहीं लग सकता । जिस धर्मकी परीक्षा प्रमाण और युक्ति द्वारा सिद्ध न हो उसे बुद्धिमान पुरुषों को कदापि नहीं स्वीकार करना चाहिये । जो धर्म स्वानुभाव, युक्ति, आगम इनसे दूर हो तो उस धर्म को किसप्रकार धर्म कहा जा सकता है ? इसलिये विद्वानोंको उचित है कि धर्मका स्वरूप समझकर ही उसे धारण करें । धर्म अहिंसामय है, दयामय है । हिंसा और अदयाभाव उससे सर्वथा विपरीत - अधर्म है । इसलिये यज्ञादिकों में धर्म
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