SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२६ ] [ पुरुषार्थसिद्धय पाय समझकर जो लोग पशुओंका प्राणबध करते हैं, वे साक्षात् अधर्मी हैं, पापी हैं, निर्दयी हैं । इसप्रकार समझकर धर्मके विषय मूढ़बुद्धि बनना महा मूर्खता है, ऐसी मूर्खता धारणकर पशुओं की हिंसा करना कभी भी किसीको उचित नहीं है। और भी धर्मो हि देवताभ्यः प्रभवति ताभ्यः प्रदेयमिह सर्व। इति दुर्विवेककलितां धिषणां न प्राप्य देहिनो हिंस्याः॥८॥ __अन्वयार्थ-( हि ) निश्चय करके (धर्मः) धर्म ( देवताभ्यः ) देवताओं से ( प्रभवति ) पैदा होता है इसलिये ( ताभ्यः ) उनके लिये ( इह ) इस लोकमें ( सर्व ) सब कुछ ( प्रदेयं ) दे देना चाहिये ( इति ) इस प्रकार ( दुविवेककलितां ) अविवेकपूर्ण (घिषणां ) कुबुद्धिको ( प्राप्य ) पाकरके ( दहिनः ) प्राणी ( न हिंस्याः ) नहीं मारना चाहिये ।। विशेषार्थ -धर्मके प्रणेता देवता हैं इसलिए उनके लिये मांसादि देनेमें भी कोई दोष नहीं हैं, ऐसी खोटी बुद्धि धारण करके प्राणियोंका बध करना उचित नहीं है । लोकमें किसी अतिथिके लिये भी मांस सरीखा महा निकृष्ट एवं घृणित पदार्थ भेट नहीं किया जाता । किसी राजामहाराजा की भेंटमें भी कोई ऐसी बुरी वस्तु नहीं देता तो क्या देवताओं की भेंटमें ऐसी अपवित्र अतएव अस्पृश्य वस्तु देनी चाहिये, कभी नहीं । जो लोग धर्मके नाम पर देवताओंके बहानेसे पशुबध करते हैं वे महा मूर्ख हैं । ___ अथितिके लिये भी प्राणिघात करना पाप है पूज्यनिमित्तं घाते छागादीनां न कोपि दोषस्ति। इति संप्रधार्य कार्य नातिथये सत्त्वसंज्ञपनं ॥१॥ अन्वयार्थ - ( १पूज्यनिमित्त ) पूज्य पुरुषों के निमित्त ( छागादीनां ) बकरा आदिके १. 'उत्तररामचरित' सनातनधर्मावलंबियोंका काव्यग्रन्थ है, उसके प्रणेता उन्हींके महान कवि भवभूति हुये हैं । उन्होंने रामचरित में प्रगट किया है कि 'एक ऋषि जिसके यहाँ अथिति हए थे उसने सत्कारार्थ बछियाकी हिंसा की और आगंतुक ऋषिने मांसाहार किया' इस प्रकार पशुहिंसा और मांस भक्षणकी आशा देने वाले तथा ऐसी नीच राक्षसी प्रवृत्ति करने वाले ऋषि नामधारियों विषय में विशेष लिखना व्यर्थ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy