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________________ [ पुरुषार्थसिद्धय,पाय संशय करना अज्ञानताका ही सूचक है । वास्तवमें विचार किया जाय तो हिंसा करनेवाला कभी ज्ञानवान एवं विवेकी नहीं बन सकता है, कारण कि जो क्षमाशील आत्माको मलिन तथा क्रूर बना चुका है वह थोड़े से ज्ञानके क्षयोपशमको भी नष्ट कर देता है । विना सात्विकभावोंके विशेष ज्ञानकी वृद्धि नहीं हो सकती। जिनकी मांसादिक पदार्थों के भक्षण में प्रवृत्ति है फिर भी जो विशेष बुद्धिमान देखे जाते हैं सो वह बुद्धिमत्ता आत्माको सुखी बनानेवाली नहीं है, वैसे ज्ञानसे सिवा अनर्थकारी प्रयोगों के कभी उत्तम बात नहीं सूझ सकती इसलिये उस ज्ञानको कुमतिज्ञान का विकाश कहा जाता है और अपना तथा परका कल्याण सुमतिके बिना हो नहीं सकता इसलिये वैसे ज्ञानसे सात्विकपरिणामी मंदज्ञानी उत्तम है और न हिंसा करनेवाला पुष्टशरीरी और निरोगी ही रह सकता है। जो पुष्टता उत्तम उत्तम फलोंके सेवन से घी दूध बादाम आदि उत्तम उत्तम पदार्थों के सेवन से आती है वह मांसादि विकारी पदार्थों के सेवन से कभी नहीं आ सकती। ऊपरसे शरीर भले ही स्थूल हो जाये परन्तु मांसादि अभक्ष्य भक्षण करनेवालोंके शरीरमें अनेक विकार और मलोंका संचय होता रहता है, उससे उन्हें दमा श्वास रुधिरविकार आदि बीमारियोंका घर बनना पड़ता है | इसलिये अहिंसा पालन करनेवालोंको पापमें लिप्त जीवोंकी अवस्थाओं को देखकर थोड़ा भी स्वधर्मसे विचलित एवं संशयालु नहीं होना चाहिये किन्तु दृढ़ रहकर उत्तरोत्तर उस अहिंसात्मक पवित्र धर्मकी वृद्धि कर आत्म उन्नतिके साथ साथ पर रक्षणव्रत की पूर्णता तक पहुंचना चाहिये । २२४ ] धर्मार्थ हिंसा भी पाप है सूक्ष्मो भगवद्धर्मो धर्मार्थं हिंसने न दोपोस्ति । इति धर्ममुग्धहृदयैनं जातु भृत्वा शरीरिणो हिंस्याः ॥ ७६ ॥ अन्वयार्थ – (भगवद्धर्मः सूक्ष्मः ) ईश्वरका बताया हुआ धर्म सूक्ष्म है ( धर्मार्थं हिंसने ) धर्म के लिए हिंसा करने में ( न दोषः अस्ति ) दोष नहीं हैं ( इति ) इसप्रकार ( धर्ममुग्ध हृदये : ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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