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पुरुषार्थसिद्धय पाय
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अहिंसापालकोंको दृढ़ रहना चाहिये । अमृतत्वहेतुभूतं परममहिंसारसायनं लब्ध्वा । अवलोक्य वालिशानामसमंजसमाकुलैन भवितव्यं ॥७॥
अन्वयार्थ - ( अमृतत्वहेतुभूतं ) अमृतपने का कारणभूत-नहीं मरनेका कारणस्वरूप ( परमं ) उत्कृष्ट ( अहिंसारसायनं ) अहिंसारूपी रसायनको ( लब्ध्वा ) पाकर (वालिशानां) मुखौंके ( असमंजसं ) अयोग्य अथवा प्रतिकूल वर्तावको ( अवलोक्य ) देखकर ( आकुलैः ) व्याकुल ( न भवितव्यं ) नहीं होना चाहिये ।
विशेषार्थ-अहिंसाधर्मका पालना एक प्रकारकी रसायन है। जैसे रसायनका सेवन करनेवाला चिरजीवी बन जाता है उसीप्रकार इस अहिंसारूपी रसायनका सेवन करनेवाला सदाके लिये अजर अमर हो जाता है अर्थात् अहिंसाधर्मको उत्कृष्टरीतिसे पालनेवालोंको मोक्षसिद्धि हो जाती है । ऐसे महान् श्रेष्ठ अहिंसाधर्मको पाकर प्रत्येक बुद्धिमानको चाहिये कि वह सदा उसके यत्नाचारपूर्वक पालने में दृढ़ रहे, तथा प्रतिकूल प्रवृत्ति देखकर किसी प्रकार चित्तमें व्याकुलता अथवा संशयालु प्रवृत्ति न लावे । संसारमें यह भी देखने में आता है कि अनेक जीवोंकी हिंसा करनेवाले भी सुखी और ज्ञानवान पाये जाते हैं और अहिंसाधर्मके सेवन करनेवाले दुःखी भी पाये जाते हैं। अनेक अहिंसा धर्मके पालक कृशशरीर और रोगी भी देखनेमें आते हैं परंतु हिंसा करनेवाले और जीवोंके शरीरपिण्डको भक्षण करनेवाले कोई कोई पुष्टशरीर
और निरोगी भी पाये जाते हैं । ऐसी अवस्थामें बहुतसे मूर्ख उस हिंसारूप अधर्मकी पुष्टि करते हैं। जो कुछ लाभ उन्हें पूर्वयुण्यके उदय से मिल रहा है वह सब वे हिंसाके करनेसे बतलाते हैं। इसप्रकारकी विपरीत प्रवृत्ति कुछ मूखों की देखकर बुद्धिमान पुरुषोंका कर्तव्य है कि वे चित्तमें यह संशयभाव कभी न लावें कि शायद हिंसासे ज्ञान विकसित होता हो तथा शरीरकी पुष्टि और निरोगता भी उसीसे होती हो । ऐसा
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