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________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय उपदेश ग्रहण करनेके पात्र हैं जो इन - मदिरा मांस मधु और पांच उदुंबर फलोंका त्याग करके अपने परिणामों को निर्मल बना चुके हैं । २२० ] V~~~♪ `ÿÿss. ऊपर कहे हुये तीन मकार और पांचों ही फल आत्माके लिये महान् अनिष्ट करनेवाले हैं, महान् पापबंध करनेवाले हैं इसलिये सबसे पहले जैनधर्मके सिद्धांतानुसार इन्हीं आठोंका परित्याग श्रावकके लिये आवश्यक बतलाया गया हैं । इन्हीं आठोंके त्यागको आठ मूलगुण कहते हैं, जिसके मूलगुण नहीं हैं वह श्रावककी कोटि में भी नहीं सम्हाला जा सकता । मूलगुणों के अभाव में उत्तरगुण- पंचअणुव्रत आदि तो किसीप्रकार पाले ही नहीं जा सकते हैं । जिसके आठ मूलगुण नहीं हैं वह किसी प्रकारकी धर्मक्रिया के पालने में समर्थ नहीं हो सकता । सहसा तो छोड़ ही दो धर्ममहिंसारूपं संशृण्वंतोपि ये परित्यक्तु । स्थावरहिंमाम महास्त्रसहिंसां तेपि मुचंतु ॥ ७५ ॥ अन्वयार्थ - ( धर्म अहिंसारूपं ) धर्म अहिंसारूप है इस बातको (संभृवंतः अपि ) भले प्रकार जानते हैं फिर भी ( ये ) जो पुरुष (स्थावरहिंसां परित्यक्तु ) स्थावर हिंसा के छोड़ने में (असहा: ) असमर्थ हैं ( ते अपि ) वे भी (सहिंसां मु'चंतु ) त्रसहिंसाको तो छोड़ दें । त्रिशेषार्थ - जो पुरुष धर्मका स्वरूप ही नहीं समझते वे यदि हिंसासे नहीं बच सकें तो आश्चर्यकी बात नहीं है कारण वे उस विषयमें अज्ञानी 'हैं, परन्तु जो यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि धर्मका स्वरूप अहिंसात्मक है, यदि वे भी हिंसा नहीं छोड़ सकें तो आश्चर्य की बात हैं । श्रीगुरु ऐसे पुरुषों से जो कि धर्मका स्वरूप समझे हुए हैं प्रेरणापूर्वक आदेश करते हैं कि भाई ! यदि तुम जान बूककर भी स्थावर हिंसाके छोड़ने में समर्थ नहीं हो तो न सही; परन्तु त्रसहिंसा तो छोड़ दो । यदि वह भी नहीं छोड़ सकते तो तुम्हारा धर्मका सुनना सुनाना सब कुछ व्यर्थ हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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