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________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय ] [२१६ जो पदार्थ त्रस जीवों की योनिरूप नहीं हैं उनसे तो त्रस जीव निकल जाते हैं परंतु जो योनिरूप हैं उनसे सब त्रसोंका निकलना अशक्य है। अनेक सूक्ष्म त्रस उन्हीं फलोंमें रहते ही हैं इसलिये ऐसे सर्वथा अभक्ष्य पंच उदुबर फलोंको सुखाकर खाना भी हिंसा है। परिणामोंमें तीब्रराग तथा आकुलता होनेसे भावहिंसा होती है और उन त्रस जीवोंका घात होनेसे द्रव्यहिंसा होती है इसके सिवा उन फलोंका भक्षण करनेसे मांस सेवन का दोष आता है, इसलिये पांचों लिए फल जैनमात्रके त्याज्य हैं । ___ धर्मोपदेश पानेके पात्र अष्टावनिष्टदुस्तरदुरितायतनान्यमूनि परिवर्त्य । जिनधर्मदेशनायाः भवंति पात्राणि शद्धधियः॥७४॥ अन्वयार्थ - ( अमूनि ) इन ( अष्टौ ) आठ (अनिष्टदुस्तरदुरितायतनानि ) अनिष्ट. कठिनतासे छूटनेवाले और पापोंकी खानस्वरूप फलोंको ( परिवयं ) छोड़कर ही (शुद्धधियः ) शुद्धबुद्धिवाले पुरुष (जिनधर्मदेशनयः ) जिनधर्मके उपदेश ग्रहण करनेके (पात्राणि भवन्ति) पात्र होते हैं। __विशेषार्थ-जबतक कोई पुरुष इन पांच फलोंको और मदिरा मांस मधुको नहीं छोड़ सकता तबतक वह जैनधर्मके उपदेशको सुननेका पात्र भी नहीं है। कारण कि जिसके इतना तीव्र राग है कि जो साक्षात् त्रस जीवोंके कलेवरको ही भक्षण कर जाता है, उस दयाहीन महाक रपरिणामी मलिनात्माके जिनधर्मके स्वरूपके सुननेके कहां परिणाम हो सकते हैं ? ऐसे तीव्र रागी पुरुषको उपदेश नहीं देना चाहिये सो नहीं। आचार्य महाराज का यही अभिप्राय है कि ऐसे अभक्ष्यभक्षी मलिनबुद्धिकी आत्मामें थोड़े भी निर्मल परिणाम नहीं हैं जो कि जिनधर्मको सुनकर वह कुछ लाभ उठा सके । ऐसी अवस्थामें उसे उपदेश देना व्यर्थ ही जाता है। क्योंकि जिसके परिणामोंमें थोड़ासा क्षयोपशम होता है तभी उस आत्माका उपयोग सन्मार्गकी ओर झुकाया जा सकता है इसलिए वे ही पुरुष जिनधर्मका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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