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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
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अर्थात् श्रावकोंको प्रयोजनसे भिन्न स्थावरहिंसा भी यथाशक्ति बचाना चाहिए परन्तु त्रसहिंसा तो उसके लिए छोड़ना आवश्यक ही हैं ।
सामान्य और विशेषत्यागमें अन्तर कृतकारितानुमननैर्वाक्कायमनोभिरिष्यते नवधा।
औत्सर्गिकी निवृत्तिर्विचित्ररूपापवादिकी त्वेषा॥७६॥ अन्ध्यार्थ-( औत्सर्गिको ) उत्सर्गरूपी-सामान्यरूप (निवृत्तिः ) त्याग ( कृतकारितानुमननैः ) कृत, कारित, अनुमोदनाके भेदोंसे (वाक्काय मनोभिः ) वचन, काय और मनके भेदोंसे ( नवधा ) नो प्रकार ( इश्यते ) कहा जाता है। (तु और (एषा अपवादिको निवृत्तिः) यह अपवादरूप त्याग ( विचित्ररूपा ) अनेक प्रकार कहा जाता है।
विशेषार्थ-त्याग दो भेदोंमें बांटा जाता है ( १ ) जो त्याग मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदना-अर्थात् किसी कार्यको मनसे वचनसे कायसे स्वयं करना, दूसरोंसे कराना, करते हुएकी प्रशंसा आदि करना, इन नौ प्रकारों से किया जाता है वह उत्सर्गत्याग कहा जाता है । उत्सर्ग त्याग सर्वथात्याग, सामान्यत्याग ये सव पर्यायवाची शब्द हैं । परंतु जो त्याग इन नव भेदोंमेंसे किसी एक वा अनेक भेदोंसे किया जाता है वह अपवादत्याग कहा जाता है । अपवादत्याग, विशषत्याग, आंशिकत्याग आदि सब पर्यायवाची शब्द हैं । जिसप्रकार चारित्रधारियोंके मुनि और श्रावक ऐसे दो भेद हैं उसीप्रकार त्यागके भी सर्वथात्याग और एकदेशत्याग ऐसे दो भेद हैं । मुनिमहाराज तो महाव्रतके धारक हैं इसलिए वे तो प्रत्येक पापाचारका सर्वथात्याग करते हैं परंतु गृहस्थ अणुव्रती है तथा अवती पाक्षिक भी है, इसलिये वह यथाशक्ति अनेकरूपसे थोड़ा थोड़ा त्याग करता है। कोई कायसे त्याग करता है मन वचनसे नहीं करता, कोई वचनसे भी त्याग कर देता है, कोई तीनोंसे त्याग करता है परंतु स्वयं करता है दूसरोंसे उस छोड़ने योग्य विषयका आरंभ कराता है, कोई किसी दूसरेको कोई पापाचार करते हुये देखकर स्वयं उसका त्यागी होनेपर भी उसकी
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