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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
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तीर्थकर-प्रकृतिका उदय होता है तथा भगवानकी निरपेक्ष एवं स्वयं सिद्ध दिव्यध्वनि खिरती है, जिसके प्रभावसे अनेक भव्य जीव मिथ्यात्वको छोड़ कर सम्यक्त्व धारण कर लेते हैं, अनेक सम्यक्त्वी विशिष्टचारित्रशाली हो जाते हैं, अनेक श्रावक मुनिपदको धारण कर मोक्षलक्ष्मीके स्वामी बन जाते हैं । इसलिये वीतरागता और सर्वज्ञता ये दो ही गुण ऐसे हैं, जिनसे आत्मा स्वयं परमपूज्य एवं मुक्रिवधूका स्वामी बन जाता है और अन्य आत्माओं को भी अपने समान बना लेता है। वीतरागता सर्वज्ञतामें अन्तर्भूत है. अतएव इस मंगलाचरणमें उसी एक उत्कृष्ट ज्योति केवलज्ञानका स्वरूप विवेचन-रूप स्तवन किया गया है ।
जिसप्रकार दर्पणमें सामनेके समस्त पदार्थाका प्रतिविम्ब झलकता है. उसीप्रकार केवलज्ञानमें लोकालोक के समस्त पदार्थ और उनमें होने वाली भूतकाल, भविष्यत्काल एवं वर्तमानकाल-त्रिकाल सम्बन्धी समस्त पर्यायें हर समय प्रतिबिंबित होती रहती हैं । जिस प्रकार दर्पणमें पड़नेवाला प्रतिविम्ब उसी दर्पणकी पर्याय है, बाह्य पदार्थ केवल निमित्तकारण है, उसी प्रकार केवलज्ञानमें प्रतिविम्बित होनेवाले समस्त पदार्थ उसी ज्ञानकी पर्याय है । बाह्य पदार्थ केवल निमित्तमात्र हैं। जिसप्रकार दर्पण स्व-स्वरूपको नहीं छोड़ता हुआ अपने स्थान पर नियत है और बाह्य पदार्थ स्व-स्वरूपको नहीं छोड़ते हुए अपने स्थान पर नियत हैं, उसी प्रकार केवलज्ञान आत्मा में ही शुद्ध रूप से व्याप्त है, वह आत्मा को छोड़कर जगत में कहीं नहीं जा सकता । कारण-जो जिसका गुण है, वह अपने गुणी को छोड़कर कहीं बाहर नहीं जा सकता । गुण गुणी का तादात्म्य संबन्ध है । यदि गुण गुणी को छोड़कर दूसरे स्थान में भी चला जाय तो कहना होगा कि चेतन में जड़ता भी आ सकती है और जड़ में चेतनता भी आ सकता है, फिर सभी पदार्थ संकररूप धारण कर लेंगे। वैसी अवस्था में न तो पदार्थों की नियति ही रह सकेगी और न उनके लक्षण एवं कार्य कारण
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