________________
पुरुषार्थसिद्धय पाय ] wrammmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm स्वरूप ही बन सकेंगे । इसलिये केवलज्ञान निरावरण परमशुद्ध ज्ञान है, वह आत्मा में ही व्याप्त है, उसमें पदार्थो का जो प्रतिबिंब पड़ता है, वह उसी ज्ञान को शुद्ध पर्याय है । वह पर्याय पर-पदार्थों के निमित्त से होती है इसलिए विकारी है, ऐसी जिनकी समझ है, वह भूलभरी है, कारण-ज्ञेय को विषय करना ज्ञान का स्वभाव है, ज्ञेय की विषयता को छोड़कर ज्ञान का निज स्वरूप ही कुछ नहीं बनता, इसलिये ज्ञान में होने वाली समस्त पदार्थों की 'झलक' ज्ञान का ही शुद्ध रूप है । यदि पदार्थ की उदासीन निमित्तता ही ज्ञान में विभावता उत्पन्न करने वाली हो तो फिर काल की उदासीन कारणता को भी सिद्धों के स्वरूप में विभावता लाने वाली कहना चाहिये, परन्तु बिना प्रेरक कारण के कभी किसी पदार्य में विकार नहीं आ सकता । ज्ञान अपने स्वरूप में स्थिर रहता है, पदार्थ अपने स्वरूप में स्थिर रहते हैं ज्ञान में पदार्थ विषय पड़ते हैं, ज्ञान उन्हें जानता है, यह वस्तु स्वरूप ही है । पदार्थ बिना जाने हुए नहीं रह सकते, और ज्ञान उन्हें जाने बिना नहीं रह सकता; दोनों दोनों का स्वभाव ही हैं।
ज्ञान के लिए दर्पण का दृष्टान्त इसी अंश में है कि जिस प्रकार उसमें पदार्थ झलकते हैं, उसी प्रकार ज्ञान में झलकते हैं, स्पष्टता की अपेक्षा विचार किया जाय तो केवलज्ञान में और दर्पण में झलकने वाले पदार्थों में बहुत अन्तर है । दर्पण में प्रतिबिंबित होने वाले पदार्थों का केवल एक अंश स्थूलता से प्रतीत होता है। वह भी वास्तव में परोक्ष ज्ञान ही है । दर्पण में पदार्थ के दूसरी ओर का भाग नहीं झलकता, और न भीतर का भाग ही उसमें झलकता है । सूक्ष्म परमाणु और रूप-रसादिक की तो बात ही नहीं हैं । केवल ज्ञान में जगत् के समस्त पदार्थ सर्वांशरूप से झलकते हैं, इतना ही नहीं किन्तु पदार्थ के समस्त गुण एवं उनकी प्रतिक्षणवर्ती समस्त पर्यायें एक साथ उस परम निर्मल ज्ञान में झलकती
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org