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पुरुषार्थ सिद्धपाय ]
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भी छोड़ दिया जाय, तो वस्तुतत्त्व सर्वथा अनिर्वचनीय हो जायगा वैसी अवस्था में हम उसके वास्तविक बोध तक कभी पहुंच नहीं सकेंगे । इसलिये आचार्यप्रवर श्री अमृतचंद्र महाराजने केवलज्ञानको उत्कृष्ट ज्योति शब्दसे सूचित किया है ।
श्री अहं परमेष्ठी में परमपूज्यता और ईश्वरपना इसलिये प्राप्त हुआ है। कि वे सर्वज्ञ हैं, वीतराग हैं और हितोपदेशी हैं । जिस सर्वज्ञता आदि गुणों के द्वारा श्री अर्हन्तदेवमें परमपूज्यता और ईश्वरपना आया, ग्रन्थकारने उन गुणों का ही स्तवन किया है । वास्तवमें गुणों से भिन्न गुणी कोई पदार्थ भी नहीं है । गुणोंका समूह ही द्रव्य कहलाता है । ज्ञानदर्शनादि गुणों को छोड़कर आत्मद्रव्य कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है, इसलिए ज्ञानकी पूजा है तो आत्माकी पूजा है, आत्माकी पूजा है तो ज्ञानकी पूजा है । इतना विशेष है कि शुद्ध आत्मा ही पूज्य हो सकता है, अशुद्ध आत्मा नहीं । अशुद्धता का कारण मिथ्याज्ञान है, शुद्धताका कारण सम्यग्ज्ञान है । अतः सम्यज्ञान ही पूज्य एवं स्तुति करने योग्य हैं । सम्यग्ज्ञानका आविर्भाव ( विकाश, प्रारंभ) चतुर्थगुणस्थानमें होता है, वहीं से आत्मामें एकदेश पूज्यता तथा ईश्वरपन का प्रारंभ भी हो जाता है । आगे चलकर ज्यों ज्यों कषायभावोंका नाश होकर चारित्रकी वृद्धि होती है, त्यों त्यों सम्यग्ज्ञान भी बढ़ता जाता है । दशवें गुणस्थानके अन्त में जब सूक्ष्मलोभका भी नाश हो जाता है तब आत्माका क्षीणकषाय-रूप परिणाम हो जाता है, वही समय आत्माकी पूर्ण चारित्रप्राप्ति का है । पूर्ण चारित्रविशिष्ट आत्मा ही परम वीतराग कहलाता है, जहाँ पर आत्मामें यह परम वीतरागता - गुण प्राप्त होता है, उसीके उत्तरकालमें उसमें केवलज्ञानरूपी परमज्योति प्रगट होती है । अर्थात् बारहवें गणस्थानमें आत्मा वीतरागी होता है. और वहींपर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातियाप्रकृतियों का नाश करके केवलज्ञानी - सर्वज्ञ हो जाता है । वही तेरहवें गुणस्थानका प्रारंभ है इसी तेरहवें गुणस्थानमें रहनेवाला आत्मा श्रीअर्हतपरमेष्ठीके नामसे विभूषित होता है । यहीं पर
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