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________________ [ पुरुषार्थं सिद्धपाय है । प्रधानता इस गुणको इसलिये दी जाती है कि आत्मामें अनंतगुणोंके रहते हुए भी यही एक ज्ञानगुण ऐसा है जो अन्य समस्त गुणोंका प्रकाशक है तथा अपना भी स्वयं प्रकाश करता है । वचनद्वारा भी यही एक गुण कहा जा सकता है अन्य समस्त गुण अवक्तव्य हैं अर्थात् कहे नहीं जा सकते । अन्य समस्त गुण क्यों अवतव्य हैं, तथा केवलज्ञान ही क्यों वक्तव्य हैं ? इसका कारण यह है कि ज्ञान सविकल्पक - साकार है । अन्य-दर्शन, सुख, वीर्य, चारित्र आदि समस्त गुण निर्विकल्पक - निराकार हैं । अतएव सम्यक्त्व, चारित्र आदि गुणों का विवेचन नहीं किया जा सकता, परंतु उनकी भिन्नता दिखाने के लिये उनका जो लक्षण निरूपण किया जाता है, वह भी ज्ञानद्वारा ही किया जाता है । ज्ञान ही एक अपूर्व सूर्य है जो स्वपर प्रकाशक है । जिस समय आत्मा घातिया कर्मों को नष्ट कर देता है, उस समय वह समस्त कषायभाव को अपने निजरूपसे सर्वथा दूर कर परमशुद्ध चैतन्यरूप को प्राप्त कर लेता है; उसी अवस्था में आत्मा में अन्य समस्त गुणों के पूर्ण विकाश के साथ साथ केवलज्ञान सूर्य का उदय होता है । यद्यपि केवलज्ञानको सूर्यकी उपमा देना ऐसा ही है जैसे कि बालक के मांगने पर उसे असली सिंह के स्थान में नकली सिंह देकर संतुष्ट करना । जिस प्रकार नकली सिंह में असली सिंह के गुणों का सर्वथा अभाव है, तो भी आकृतिसे सिंह समझकर बालक तुष्ट हो जाता है, उसीप्रकार प्रतिदिन उदय होनेवाले इस ज्योतिश्चक्र के प्रतींद्र के सूर्य-विमान में स्वपरप्रकाशकत्त्व-रूप चैतन्य गुणका सर्वथा अभाव है, फिर भी जगत् में सबसे बड़ा प्रकाशकत्व - रूप स्वरूप देखकर केवलज्ञानको उसीकी उपमा देकर उसके अचिंत्य महत्त्व का दिग्दर्शन कर लेते हैं । जगत् में शब्दवर्गणारूप स्कंध कुल असंख्यात ही हैं । इसलिये जो शब्द हमें वस्तुके एक अंशका भी बोध कराते हैं, हम उन्हीं शब्दोंके प्रयोगसे वस्तुके समस्त स्वरूपके महात्म्यको समझ लेते हैं । अन्यथा इस उपचरित विवक्षाको For Private & Personal Use Only २] Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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