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मूलग्रन्थकारका मंगलाचरण
तज्जयति परं ज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्यायैः । दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र ॥ १ ॥
श्रीवीतरागाय नमः
श्रीमन्महामहिम - अमृतचंद्रसूरिवर्य - विरचित
पुरुषार्थसिद्धयुपाय
भव्यप्रबोधिनी नामक विस्तृत हिंदीटीका सहित
अन्वयार्थ - ( यत्र ) जिसमें ( समस्तैः ) संपूर्ण ( अनन्तपर्यायः) अनंत पर्यायों से ( समं ) सहित ( सकला ) समस्त ( पदार्थ मालिका) पदार्थों की माला अर्थात् समूह ( दर्पणतले ) दर्पण के तल भाग के (इव) समान ( प्रतिफलति ) झलकती है, (तत्) वह (परं) उत्कृष्ट ( ज्योतिः ) ज्योति अर्थात् केवलज्ञानरूपी प्रकाश ( जयति ) जयवंत हो ।
विशेपार्थ- ग्रंथकार श्री अमृतचंद्र सूरिने इस मंगलाचरणमें केवलज्ञानरूपी ज्योति को ही नमस्कार किया है और जगत् में उसी का प्रकाश बना रहे, भावना प्रगट की है। जिन अनन्त चतुष्टय गुणोंसे अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख और अनंतवीर्य से - श्रीअर्हन्तदेवमें परमपूज्यता एवं जीवनमुपना आता है, उन्हीं में से यह केवलज्ञान ज्योतिएक प्रधान गुण
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