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[पुरुषार्थसिद्धय पाय
विशेष रीतिसे समझना चाहिये बाकी तेइंद्रिय आदि भी रागद्वेषके निमित्तिसे इस कोटिमें आ सकते हैं, एकेंद्रिय दो इंद्रिय जीव भी सरागी हैं परंतु वे सर्वथा अव्यक्त कोटि में हैं । वास्तवमें हिंसककी प्रधान कोटिमें वे ही जीव समझने चाहिये जो बुद्धिपूर्वक अपने अथवा परके द्रव्यप्राण अथवा भावप्राणोंका घात करते हैं जो प्राणपीडारूप क्रिया है उसे हिंसा कहते है, अर्थात् जिसकी हिंसा की जाती है उसके प्राणोंमें जो पीड़ा हो रही है और द्रव्यप्राणोंका जो घात हो रहा है वही हिंसा है । हिंसा करते समय जो अशभ कर्मों का बंध किया जाता है उसके उदयमें आनेपर हिंसा करनेवालेको जो नरकादि गतियोंमें कष्ट मिलता है वही हिंसाका फल है। जैसे एक मनुष्यने सिंहको मारा और तीव्र क्रूर परिणामोंसे उसने नरकायु का बंध बांध लिया, पहली आयुके खिर जानेपर तथा हिंसा करते समय बांधी हुई नरकायुका उदय आने पर वह जीव नरकगतिमें चला गया और वहां छेदन भेजन भर्जन कुंभीपाकपाचन आदि नानाप्रकारके दुःखोंको भोगने लगा तो यहांपर सिंह तो हिंस्य है, मनुष्य हिंसक है, सिंहके प्राणों का घात होना हिंसा है और मनुष्यने नरकायुका जो बंध किया तथा उसके उदयमें आनेपर वह नरकगतिमें पहुंचकर वहांके दुःखोंको भोगने लगा यह हिंसाका फल है।
इसप्रकार इन समस्त सूक्ष्म हिंसाकोटियोंको समझ करके प्रत्येक विचारशील एवं कर्मों का उपशमन करनेके लिये उद्योगशील पुरुषको अपनी शक्निके अनुसार हिंसाका परित्याग कर देना ही उचित है।
अष्ट मूलगुण मद्यं मांसं क्षौद्र पंचोदुंबरफलानि यत्नेन । हिंसाव्युपरतकामैर्मोक्तव्यानि प्रथममेव ॥६१॥ अन्वयार्थ (हिंसाव्युपरतकामैः) हिंसाको छोड़नेकी इच्छा करनेवाले पुरुषोंको (प्रथम एव)
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