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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
सबसे पहले ( यत्नेन ) प्रयत्नपूर्वक अथवा सावधानी के साथ ( मद्य ) मदिरा (मांस) मांस ( क्षौद्र ) मधु ( पंच उदु बरफलानि ) पांच उदुंबरफल (मांक्तव्यानि ) छोड़ देना चाहिये ।
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विशेषार्थ — ऊपरके श्लोकमें यह बात प्रगट की गई थी कि अपनी शक्तिके अनुसार हिंसाका परित्याग करना चाहिये । इस श्लोक द्वारा यह बात प्रगट की गई है कि वे कौनसे पदार्थ हैं जिनके सेवनसे अत्यधिक जीवोंकी हिंसा होती है जिन्हें कि सबसे पहले छोड़ने की आवश्यकता है ? इसके लिये बतलाया गया है कि हिंसाका त्याग करनेवालों को सबसे पहले मदिरा, मांस, मधु (शहत ) और पांच उदु बरफल इन आठ वस्तुओंका परित्याग कर देना चाहिये। सबसे पहले इन्हीं आठोंका परित्याग क्यों बतलाया गया है ? इसका उत्तर यह है कि ये आठों ही वस्तुएं ऐसी हैं कि जिनके सेवन से अनंतप्राणियोंका घात हो जाता है एवं असंख्य त्रसजीवा घात हो जाता है । इनसे बढ़कर दूसरा कोई ऐसा पदार्थ नहीं है जो कि जीवोंकी खान हो । जीवहिंसाका त्याग करनेके लिये यदि कोई प्रथम श्रेणी है तो इन्हीं आठ वस्तुओंका त्याग है, इनका त्याग किये बिना यदि कोई हिंसाका त्यागी कहलानेका पात्र बनना चाहता है तो वह बात सर्वथा असत्य है । त्यागका मार्ग ही इन आठोंके त्यागसे प्रगट होता है । अथवा यों कहना चाहिये कि जो पुरुष मदिरा मांस मधु और पांच उदुम्बरफलोंको छोड़ नहीं सकता वह हिंसाका त्यागी कभी बन ही नहीं सकता अथवा वैसे पुरुषकी प्रवृत्ति त्याग करनेके लिये कभी उद्यत नहीं हो सकती । मदिरा मांस मधु आठों ही पदार्थ जीवोंके साक्षात् पिण्ड हैं तथा अनंत स्थावर एवं असंख्य त्रसोंके आश्रयभूत हैं इसलिये उनका सेवन करनेवाला महापापी तीव्रकषायी, सबसे बड़ाहीनाचारी एवं मनुष्य श्र ेणीमें गिनने योग्य नहीं है । जैनधर्मके सिद्धांत के अनुसार तो जो मनुष्य इन आठोंका परित्याग नहीं करता है वह जैन ही नहीं कहा जा सकता, इन आठों का त्यागी ही जैन कहा जाता है । इन आठोंका त्याग ही अष्ट मूलगुणके
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