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________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय ] [ २०७ उसीप्रकार इस जिनेंद्रदेव के नयरूपी चक्रसे अथवा जिनेंद्र भगवानद्वारा प्रतिपादित नयसमूहसे मिथ्यावादियोंका अभिमान खण्ड खण्ड हो जाता है । अर्थात् जब पदार्थ अनेक धर्मात्मक है तो वह नयभंगियोंसे ही ठीक ठीक कहा जा सकता है, नयोंको छोड़कर किप्ती भी धर्मको यदि एकांतरूपसे प्रतिपादन किया जाय तो वह प्रतिपादन वस्तुस्वरूपसे प्रतिकूल हो जाता है इसलिये जैनधर्मको छोड़कर सभी धर्म एकांतपक्षके प्रतिपादक होनेसे निरवलंब, वस्तुस्वरूपसे च्युत एवं प्रत्यक्ष तथा परोक्ष प्रमाणोंसे बाधित हैं, इसलिये जैनमतका सारभूत रहस्य नयचक्रका सर्वोपरि महत्त्व प्रगट करने के लिये आचार्य महाराजने उस नयचक्रको चक्रकी उपमा दी है । चक्र नाम समूहका भी है और शस्त्र विशेषका भी है दोनों ही अर्थ यहांपर घटित होते हैं । दुर्विदग्ध लोगोंका मस्तक उनका माना हुआ तत्त्व समझना चाहिये, उसीके बलपर वे ऊंचा शिर किये हुये रहते हैं परंतु अनेकांतस्वरूप जिनमतके सामने उन सबका मस्तक गिर जाता है-खंडित हो जाता है। हिंसा निरूपण की समाप्ति अवबुध्य हिंस्यहिंसकहिंसाहिंसाफलानि तत्त्वेन । नित्यमवगृहमानैनिजशक्त्या त्यज्यतांहिंसा ॥६॥ अन्वयार्थ-( हिंस्यहिंसकहिंसाहिंसाफलानि ) हिंस्य कौन है, हिंसक कौन है. हिंसा क्या है, हिंसाका फल क्या है ? इन चारों बातोंको ( तत्त्वेन ) वास्तवरूपसे ( अवबुद्धय ) समझ करके ( नित्यं अवगृहमानैः ) सदा संवर करनेमें सावधान रहनेवाले पुरुषोंको (निजशक्त्या) अपनी शक्ति के अनुसार ( हिंसा ) हिंसा ( त्यज्यतां ) छोड़ना चाहिये ।। विशेषार्थ-जिसकी हिंसा की जाती है उसे हिंस्य कहते हैं । ऐकेंद्रियसे लेकर संज्ञी पंचेंद्रियपर्यंत सभी प्राणी हिंस्य कहे जाते हैं, कारण कि सभी संसारी जीवोंके द्रव्यप्राण अथवा भावप्राण स्व-परके द्वारा पीडे जा सकते हैं । हिंसा करनेवालेको हिंसक कहते हैं, इस कोटिमें मनवाले संसारी जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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