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________________ [ पुरुषार्थसिद्धय पाय होते चले जाते हैं। कर्मों की भिन्न भिन्न वर्गणाओंके स्कंधभेद से असंख्यात भेद हैं तथा उतने ही उनके प्रतिपक्षी क्षयोपशमके भेद हैं । सूक्ष्मदृष्टिसे विचार किया जाय तो प्रत्येक कर्मपरमाणुमें रसदानशक्ति है और जितने कर्मपरमाणुरूप आवरकोंके भेद हैं उतने ही क्षयोपशमके भेद हैं, इस दृष्टि अनंत कर्म परमाणुओं के प्रतिपक्षी अनंत आत्मीयभावोंकी क्षयोपशमरूप कोटियां हैं । इसप्रकार उन अनंत भावोंके होनेवाले प्रतिक्षण परिणमनके सूक्ष्म अंशोंका परिज्ञान नितांत दुस्तर एवं छद्मस्थोंके अगम्य है इसीलिये उसको गहनवनके नामसे आचार्यों ने कहा है । परन्तु जिसप्रकार बड़ेसे बड़े जंगलमें भटके हुए मनुष्यको जंगलके मार्गों को जाननेवाला मनुष्य तुरन्त मार्गपर खड़ा कर देता है एवं प्राप्तव्य स्थानपर पहुंचा देता है उसीप्रकार इस सिद्धांतरूपी गहनवनमें जो जीव मार्ग भूलकर इधर उधर कुमार्ग में भटकते फिरते हैं उनके लिये श्रीगुरु आचार्य महाराज ही शरणभूत हैं अर्थात् उस कुमार्गमें जानेवाले पुरुषको वे स्व-पर-तारक गुरु ही सर्वज्ञ प्रतिपादित जिनमतका रहस्य बताकर सुमार्गपर लानेका प्रयत्न करते हैं । सिद्धांतरहस्य के अपरिमितवेत्ता उन दिगम्बराचार्यों के सिवा अन्य समर्थ नहीं है इसलिये उन्हीं की शरण में पहुंचकर उन्हींके सदुपदेशसे आत्माका कल्याण करना चाहिये । २०६ ] जिनेंद्रदेवका नयचक्र अत्यंत निशितधारं दुरासदं जिनवरस्य नयचक्रं । खंडयति धार्यमाणं मूर्धानं झटिति दुर्विदग्धानां ॥ ५६ ॥ अन्वयार्थ – [ अत्यंत निशितधारं ] अत्यंत तीक्ष्ण धारवाला [ दुरासदं ] बड़ी कठिनता से मिलनेवाला [ जिनवरस्य नयचकूं ] जिनेंद्रदेवका नयरूपी चकू [ धार्यमाणं ] यदि धारण किया जाय तो वह [ दुर्विदग्धानां ] अज्ञानी जीवोंके [ मूर्धानं ] मस्तकको [ झटिति ] शीघ्र [ खंडयति ] खंड खंड कर देता है । विशेषार्थ – जिसप्रकार चक्र से शत्रुओंका मस्तक खण्ड खण्ड हो जाता है www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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