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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
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घोंसलेमें रख दिया परन्तु वहांसे उसे एक पक्षी पकड़कर ले गया और उसे मार डाला अथवा किसी रोगीको वैद्यने अच्छा करनेके अभिप्रायसे औषधि दी; परन्तु उस औषधिसे वह मर गया तो वैसी अवस्थामें उस वैद्यको एवं घोंसलेमें बच्चेको रखनेवाले पुरुषको हिंसा होने पर भी अहिंसाका ही फल मिलेगा। कारण उनके परिणामोंमें हिंसाका भाव किंचिन्मात्र भी नहीं है प्रत्युतः उनके भाव जीवके बचानेके हैं, वैसे परिणामोंके रहनेपर यदि उनसे किसी निमित्तवश वाह्य हिंसा हो गई तो वे उस हिंसाके फलके भागीदार नहीं हो सकते किंतु भावोंके अनुसार अहिंसाके फलके भागीदार हो चुके ।
मार्ग-प्रदर्शक इति विविधभंगगहने मुदुस्तरे मार्गमूढ़दृष्टीनां ।
गुरवो भवंति शरणं प्रबुद्धनयचक्रसंचाराः॥५८ ॥ अन्वयार्थ- [इति ] इसप्रकार [ सुदुस्तरे ] अत्यंत कटिन [ विविधभगगहने ] अनेक प्रकार के भंग-भेद प्रभेदरूप गहन वनमें [ मार्गमूढदृष्टीनां ] जिनमार्गको भूले हुए पुरुषोंकेलिये [ प्रवुद्धनयचक्रसंचाराः ] अनेक नयसमूहको भलीभांति जाननेवाले [ गुरवः । श्रीगुरुआचार्य महाराज ही [ शरणं भवंति ] शरण होते हैं । ___ विशेषार्थ-जिसप्रकार बड़े भारी जंगलमें कोई अनजान पुरुष फंस जाता है तो उसका वहांसे निकलना बहुत कठिन हो जाता है कारण जंगलमें मार्गका मिलना अत्यंत कठिन है । इसीप्रकार जैनधर्मने परिणामोंकी अनंत श्रेणियां बतलाईं हैं उनमेंसे थोड़ीसी श्रेणियोंका परिज्ञान करना भी गणधरदेव, श्रीआचार्यपरमेष्ठी आदि श्रुतधारियोंका काम है, साधारण बुद्धिवाले तो क्या विशेष पंडित भी उन परिणामकोटियोंका परिज्ञान करने में असमर्थ हो जाते हैं, कारण आत्माओंमें प्रतिक्षण परिणमन होता रहता है, उसमें निमित्तकारण पूर्वबद्ध कर्मपरमाणुओंका उदय है, जैसे जैसे कर्मों का उदय होता रहता है उसी उसीप्रकार आत्माओंके परिणमनमें भेद प्रभेद
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