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________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय [ १६१ अन्वयार्थ-[युक्ताचरणस्य ] योग्य आचरणवाले अर्थात् यत्नाचार पूर्वक सावधानीसे कार्य करनेवाले [ सतः ] सज्जन पुरुषको [ रागाद्यावेशं ] रागादिरूप परिणामों के उदय हुए [ अंतरेण ] बिना [प्राणव्यपरोपणात् एव ] प्राणोंका घात होनेमात्रसे [ जातु ] कभी [ हि ] निश्चय करके [ हिंसा न भवति ] हिंसा नहीं लगती है। _ विशेषार्थ-जैनसिद्धांतमें हिंसाका लक्षण "प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा" प्रमादके योगसे प्राणोंका नष्ट करना हिंसा है, यह कहा गया है । प्राणोंके नष्ट करनेके पूर्व प्रमत्तयोग विशेषण दिया गया है । यह हेतुरूप विशेषण हिंसाकेलक्षणको अव्याप्ति अतिव्याप्ति असंभव आदि समस्त दूषणोंसे रहित सुघटित बनानेके लिये ही दिया गया है । इस प्रमादयोगरूप पदसे सिद्ध होता है कि 'जहांपर प्रमादयोग नहीं है किंतु जीवके प्राणोंका घात है वहांपर हिंसा नहीं कहलाती और जहांपर प्राणोंका घात नहीं भी है किंतु प्रमादयोग है वहांपर हिंसा कहलाती है । शंका हो सकती है कि जबतक दोनों पदोंकी सार्थकता नहीं होगी तबतक हिंसाका लक्षण घटित नहीं होगा। जहां प्रमादयोग है वहां प्राणोंके घातके बिना भी हिंसा कही गयी है, परन्तु “प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा" इस सूत्रके अनुसार तो प्रमादयोग भी होना चाहिये और प्राणोंका घात भी होना चाहिये ?' इसके उत्तरमें यह समझ लेना चाहिये कि-जहां प्रमादयोग है वहां द्रव्यप्राणोंका घात यदि नहीं भी है तो न सही, परन्तु भावप्राणोंका तो है । जो प्रमादयोग ( कषायरूप परिणाम ) करता है वह अपने भावोंका घात तो कर ही चुका, दूसरे या अपने द्रव्यप्राणोंका घात पीछे हो या न हो । इसलिये हिंसाका यही लक्षण समुचित लक्षण है कि प्रमादयोगसे प्राणोंका घात होना । इसीलिये यहांपर ग्रन्थकर्ता श्रीआचार्य महाराज कहते हैं कि जिस जीवके रागद्वेषरूप परिणामोंका उदय नहीं है और जो सदा यत्लाचारपूर्वक सावधानीसे गमनागमन क्रिया करता है उस जीवके द्वारा यदि अज्ञात अवस्थामें किसी प्राणीके प्राणोंका घात भी हो जाय तो उस यत्ना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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