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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
चारी निष्कषाय जीवको हिंसा करनेका दूषण नहीं लगता है । क्योंकि वहां केवल प्राणोंका घात है, प्रमादरूप परिणाम तो नहीं है । इसलिये हिंसा वहीं होती हैं कि जहां प्रमादरूप परिणाम होते हैं । अतएव श्रीमुनिमहाराज सदा वीतराग परिणामोंसहित रहते हैं, बड़े यत्नाचारसे गमनागमन क्रिया करते हैं, ऐसी अवस्थामें उनके शरीरद्वारा अज्ञात अवस्थामें किसी जीवका बध भी हो जाय, तो वे उसकी हिंसाके भागीदार नहीं हैं । अर्थात् उनके हिंसारूप परिणाम नहीं हैं किन्तु वीतरागरूप हैं और यत्नाचारपूर्वक उनकी क्रिया है; जहां ये दोनों बातें हैं वहां हिंसा कदापि नहीं हो सकती ।
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सरागीको बिना प्राणघातके भी हिंसा लगती है
व्युत्थानावस्थायां रागादीनां वशप्रवृत्तायां । म्रियतां जीवो मा वा धावत्यग्रे ध्रुवं हिंसा ॥ ४६॥
अन्वयार्थ - [ रागादीनां रागादिकों के [ वशप्रवृत्तायां ] वशमें प्रवर्तित [ व्युत्थानास्थायां ] प्रमाद अवस्था में [ जीव: ] जीव [ प्रियतां ] मर जाय [ मा वा ] अथवा नहीं मरे [ ध्रुवं ] नियमसे [ हिंसा ] हिंसा [ अ ] आगे [ धावति ] दौड़ती है ।
विशेषार्थ - जिससमय आत्मा रागादि वैभाविक भावोंके वशवर्ती होकर प्रमादद- अवस्था में रहता है उससमय उसके द्वारा दूसरे जीवकी मृत्यु हो अथवा नहीं हो, उसे नियमसे हिंसा लगती है । इसलिये केवल प्राणोंका घात होना ही हिंसा नहीं है, किन्तु आत्माकी सकपायरूप प्रमाद - अवस्था ही हिंसा है । वह अवस्था जिस जीवके है उस जीवको बाह्यप्राणोंका घात ( द्रव्य प्राणोंका घात ) किये बिना ही हिंसाका दूषण लगता है ।
इसमें हेतु
यस्मात्सकषायः सन् हन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानं । पश्चाज्जायेत न वा हिंसा प्राण्यंतराणां तु ॥ ४७ ॥
अन्वयार्थ – [ यस्मात् ] क्योंकि [ आत्मा ] आत्मा [ सकषायः सन् ] कषायसहित होता हुआ [ प्रथमं ] पहले [ आत्मना ] अपने ही द्वारा [ आत्मानं ] अपने आपको [ हंति ] मार
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