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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm विचार एवं क्रियाओंसे सर्वथा रहित श्रीमुनि महाराज होते हैं । गृहस्थ त्रसहिंसाका ही त्यागी हो सकता है स्थावरहिंसाका वह उस पदस्थमें रहकर त्यागी तो नहीं हो सकता; हां,प्रयोजनके सिवा व्यर्थकी अनावश्यक हिंसासे यत्नाचारद्वारा अपनेको बचा सकता है ।
अहिंसा और हिंसाका लक्षण अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति। तेषामेवोत्पत्तिर्हिसेति जिनागमस्य संक्षेपः॥ ४४ ॥
अन्वयार्थ-( खलु ) निश्चयकर के ( रागादीनां ) रागादिकभावोंका ( अप्रादुर्भावः ) उदयमें नहीं आना ( अहिंसा ) अहिंसा ( भवति ) कहलाती है. ( इति ) इसीप्रकार ( तेषांएवं) उन्हीं रागादिभावोंकी ( उत्पत्तिः । उत्पत्तिका होना ( हिंसा ) हिंसा है ( इति जिनागमस्य ) इसप्रकार जिनागमका अर्थात् जैनसिद्धांतका ( संक्षेपः ) सारभूत रहस्य है । __ विशेषार्थ-आत्माके शुद्ध स्वभावका विभावरूप परिणमन होना ही हिंसा है। विभावरूप परिणाम रागादिस्वरूप हैं, इसलिये रागादिरूप जो भाव हैं, वे ही हिंसाके नामसे कहे जाते हैं । हिंसासे विपरीत अहिंसा है। इसलिये रागादिकभावोंका उदयमें नहीं आना ही अहिंसा है। अर्थात् अहिंसा शुद्धभावोंका नाम है । जिस जीवके निष्कषाय शुद्धपरिणाम हैं वही अहिंसाका स्वामी है । जीवके विकृत ( विकार सहित ) परिणामोंका नाम हिंसा है । विकाररहित शुद्धपरिणामोंका नाम अहिंसा है । जो जीव किसी दूसरे जीवको सताना चाहता है उसके परिणाम विकारसहित ( रागद्वषसे मलिन ) पहले ही हो जाते हैं, इसलिये दूसरे जीवको कष्ट पहुंचे या नहीं पहुंचे, मारनेवालेके रागद्वषरूप विकारी परिणाम होनेसे वह हिंसक-हिंसा करनेवाला हो चुका ।
वीतरागीको हिंसा नहीं लगती युक्ताचरणस्य सतो रागाद्यावेशमंतरेणापि । न हि भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव ॥४५॥
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