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________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय [१८१ हो रही है उस प्रवृत्तिका रुक जाना अर्थात् जहांपर सकषाय योग नहीं रहता है, जहां समस्त कषायोंका अभाव हो जाता है, जहां आत्मा वीतराग निर्मलभावोंको धारण करता है आत्माकी उसी अवस्थाका नाम चारित्र है वह आत्माका निजरूप है । गुप्ति समिति रूप जो चारित्र है वह भी प्रवृत्ति रूप है । सामायिक आदि चारित्रोंमें समस्त सावद्यका अभेद रूपसे त्याग किया जाता है परन्तु वहांपर भी संज्वलन कषायके मंदोदयसे समस्त सावद्ययोगोंका पूर्ण परिहार नहीं हो पाता, इसलिये जहां समस्त सावद्ययोगोंका पूर्ण परिहार है ऐसा यथाख्यातचारित्र हो यहां पर अंतरंग चारित्रमें कहा गया है । क्योंकि दशवें गुणस्थान तक मन वचन कायकी प्रवृत्ति सकषाय है, वहां सूक्ष्म लोभ कषायका उदय है, इसलिये वहां सूक्ष्मसांपरायनामा चारित्र है। उससे ऊपर उपशांतकषायमें सावद्ययोग नहीं है वहींपर यथाख्यात चारित्रका प्रारंभ हो जाता है । देशचारित्र और सकलचारित्र हिंसातोऽनृतवचनात् स्तेयादब्रह्मतः परिग्रहतः । कात्स्न्यै कदेशविरतेश्चारित्रं जायते द्विविधं ॥४०॥ अन्वयार्थ-( हिंसातः ) हिंसासे ( अनृतवचनात् ) असत्य वचनसे ( स्तेयात् ) चोरीसे ( अब्रह्मतः ) कुशीलसे ( परिग्रहतः ) परिग्रहसे (कात्स्न्यैकदेशविरतेः ) समस्तविरति और एक देशविरतिसे ( चारित्रं ) चारित्र ( द्विविधं ) दो प्रकार ( जायते ) होता है । विशेषार्थ-चारित्रके दो भेद हैं; एक एकदेश चारित्र, दूसरा सकल चारित्र । जहांपर हिंसा झूठ चोरी कुशील और परिग्रह इन पांचों पापोंका एकदेश त्याग किया जाता है वहां एकदेश चारित्र कहलाताहै, जहां इन पांचों पापोंका सर्वथा त्याग किया जाता है वहां सकल चारित्र कहलाता है । सकलचारित्रका दूसरा नाम महाव्रत है, एकदेश चारित्रका दूसरा नाम अणुव्रत है । कषायोंके अनुद्रेकको अर्थात् कषायोंके उदयमें न आनेको ही चारित्र कहते हैं, जहां जितने कषायांशोंका अनुदय है वहां उतना ही चारित्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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