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________________ १८० ] [ पुरुषार्थसिद्धय पाय उस चारित्रको नहीं धारण करते तो भी ठीक था, बिना सम्यग्ज्ञानके चारित्र धारण करना अंधे आदमीके समान है। जैसे एक अंधा आदमी जंगलमें पहुंच गया, वहां दैवयोगसे जंगलमें आग लग गई, आग लगने पर अंधा इधर उधर भागने लगा, जिधर भागे उधर ही उसे अग्नि का संताप सताने लगा, इसीप्रकार घूमते घामते उसके चारों ओर अग्नि व्याप्त होगई तब तो उसका प्राणही मरणासन्न होगया, इसी बीचमें एक नेत्रवाले पुरुषने दौड़कर उसका हाथ पकड़ लिया और उसे एक अग्निरहित प्रदेशसे निकाल कर बचा दिया, इसीप्रकार सद्विवेकी पुरुष उन अविवेकपूर्ण आत्माओंका उद्धार करते हैं जो कि अपनी अज्ञान क्रियाओं से पापोपार्जन कर रहे हैं । यह सम्यग्ज्ञानका ही प्रभाव है कि जिन क्रियाओं के करनेसे मिथ्याज्ञानी कर्मबंध करता है उन्हीं क्रियाओंके करनेसे वह (सम्यग्ज्ञानी) कर्मों की निर्जरा करता है । इसीलिये ग्रंथकारने चारित्रकी आराधना-प्राप्तिके लिये उपासना, ज्ञानकी आराधनाके पीछे-सम्यज्ञामकी प्राप्तिके पीछे बतलायी है । सम्यक्चारित्रका स्वरूप चारित्रं भवति यतः समस्तसावद्ययोगपरिहरणात् । सकलकषायविमुक्त विशदमुदासीनमात्मरूपं तत्॥३६॥ अन्वयार्थ - ( यतः ) कारण कि ( समस्तसावद्ययोगपरिहरणात् ) समस्त पापयुक्त योगों के दूर करनेसे ( चारित्र) चारित्र (भवति ) होता है, (तत्) वह चारित्र ( सकलकषाय विमुक्त) समस्त कषायोंसे रहित होता है, (विशदं । निर्मल होता है, (उदासीनं ) रागद्वष रहित वीतराग होता है. ( आत्मरूपं ) वह चारित्र आत्माका निज स्वरूप है। विशेषार्थ-चारित्रके दो भेद हैं; (१) अंतरंग चारित्र और बाह्यचारित्र । यहांपर अंतरंग चारित्र जो आत्माका स्वरूप है उसीका लक्षण कहा गया है । अंतरंग चारित्रका लक्षण संक्षेपमें इतना ही है कि वह निवृत्ति स्वरूप होता है, जिन मन वचन कायरूप तीन योगोंसे शुभ अशुभ रूप प्रवृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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