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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
समझना चाहिये । जो कषायें आलाके सकलचारित्रको रोकनेवाली हैं उनके अनुदय होनेपर सकलचारित्र प्रगट हो जाता हैं । अनंतानबन्धी क्रोधादिचतुष्टय, अप्रत्याख्यानावरणी क्रोधादिचतुष्टय, प्रत्याख्यानावरणी क्रोधादिचतुष्टयके अनुद्रेक-अनुदयमें सकलचारित्र प्रगट होता है । अप्रत्याख्यानावरणी देशचारित्रको नहीं होने देती इसलिये उसके अनुदयमें एकदेशचारित्र प्रगट हो जाता है। सकलचारित्र छठे गुणस्थानसे प्रारंभ हो जाता है । दशवें तक संज्वलनकषायका उदय रहता है । संज्वलनकषाय यद्यपि सकलचारित्र का घात नहीं करती तो भी यथाख्यातचारित्रकी बाधक है, इसलिये उपशांतकषाय गुणस्थानमें उसका भी अनदय होनेसे वहां यथाख्यातचारित्र प्रगट हो जाता है। पांचवें गुणस्थानमें अप्रत्याख्यानावरणी कषायका अनुदय है इसलिये वहां देशचारित्र प्रगट हो जाता है। अनंतानवंधिकषाय स्वरूपाचरणचारित्र और सम्यग्दर्शन दोनोंका घात करती है, इसलिये अविरतसम्यक्त्वनामा चतुर्थ गुणस्थानमें उसका अनुदय होनेसे सम्यक्त्व और स्वरूपाचरणचारित्र दोनों प्रगट हो जाते हैं । अनंतानुबंधिकषाय यद्यपि चारित्रमोहनीयके भेदोंमें गिनाई गई हैं इसीलिये चारित्रमोहनीयके २५ भेद हैं, तो भी उसमें चारित्रके घात करनेके साथ सम्यक्त्वके घात करनेकी भी शक्ति है, इसलिये सम्यग्दर्शनके प्रगट होनेके लिये दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंके साथ अनंतानुवंधिकी चार प्रकृतियोंका भी अनुदय आवश्यक बताया गया है।
___एकदेशचारित्र और सकलचारित्रके स्वामी निरतः कात्यनिवृत्तौ भवति यतिः समयसारभूतोऽयम्। या त्वेकदेशविरतिनिरतस्तस्यामुपासको भवति ॥४१॥
अन्वयार्थ-( काय निवृत्तौ ) सर्वथा त्यागरूप चारित्रमें ( निरतः ) लवलीन रहनेवाले ( अयं) ये (यतिः ) मुनिमहाराज ( समयसारभूतः ) आत्माके सारभूत-शुद्धोपयोग रूप स्वरूपमें आचरण करनेवाले ( भवति ) होते हैं, ( यातु ) यह नो ( एकदेशविरतिः ) एकदेश
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