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[पुरुषार्थसिद्धय पाय
ज्ञानी ही सम्यक्चारित्र धारण करनेका अधिकारी है; जो स्वल्पज्ञानी हैं वे भी विशेष मंदकषाय तथा कठिन तप करनेवाले पाये जाते हैं । ऐसी अवस्थाओंमें तपोबलसे ज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम कालांतरमें सुतरां ( अपने आप ) हो जाता है । यद्यपि प्राथमिकअवस्थामें सम्यकचारित्रकी प्राप्तिमें सम्यग्ज्ञानकी कारणता विशेष फलप्रद होनेसे आवश्यक है, तथापि आगे चलकर सम्यग्ज्ञानकी वृद्धि तथा पूर्ण प्राप्तिके लिये सम्यकचारित्र ही कारण पड़ता है । इसलिये मनःपर्ययज्ञानकी प्राप्तिकी योग्यता छठे गुणस्थानसे पहले नहीं बतलायी गई है । छठे गुणस्थानमें भी जो विशेष संयमी और ऋद्धिप्राप्त हैं, उन्हीं तपस्वियोंके उसकी योग्यता है । इससे स्पष्ट सिद्ध है कि विशेष चारित्रमें ही यह शक्ति उत्पन्न हो जाती है कि ज्ञानावरणकर्मको दूर कर देती है । केवलज्ञानकी प्राप्ति सिवा क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ हुए-किसी शिक्षा ग्रहण करनेसे नहीं होता, परम उत्कृष्ट तपोबलसे समस्त कषायों पर विजय करनेसे अर्थात् उन्हें आत्मासे सर्वथा पृथक कर देनेसे ही आत्मा केवलज्ञानी बन जाता है; इसलिये सम्यक्चारित्रसे ही विशेषज्ञान अथवा सर्वज्ञज्ञानकी प्राप्ति होती है । इसलिये ज्ञानकी अपेक्षा चारित्र पूज्य है । चारित्र ही लोकमें पूजा जाता है, त्याग ही चारित्रका मूर्तिमान रूप है । इसलिये स्वल्पज्ञानी संयमी भी पूज्य है।
सम्यक्चारित्रमें सम्यग्ज्ञानकी आवश्यकता नहि सम्यग्व्यपदेशं चरित्रमज्ञानपूर्वकं लभते।
ज्ञानानंतरमुक्त चारित्राराधनं तस्मात् ॥३८॥ अन्वयार्थ - ( अज्ञानपूर्वकं ) अज्ञान-पूर्वक ( चरित्र' ) चारित्र ( सम्यक्व्यपदेशं ) सम्यक्भावको-समीचीनताको (हि ) निश्चयसे ( न लभते ) नहीं प्राप्त होता है. ( तस्मात् ) इसलिये ( चारित्रराधनं ) चारित्रका आराधन करना ( ज्ञानानंतरं ) ज्ञानके पीछे ( उक्त ) कहा गया है।
विशेषार्थ—सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होनेपर ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता
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