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________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय ] [ १७७ अन्वयार्थ-( विगलितदर्शनमोहः । नष्ट हो चुका है दर्शनमोहनीयकर्म जिनका।। समंजमज्ञानविदिततत्वाथैः ) सम्यग्ज्ञान के द्वारा जाने हैं जीव अजीव आदिक तत्व जिन्होंने ( नित्यमपि निःप्रकः ) जो सदा अडोल अथवा अचल रहनेवाले हैं, ऐसे पुरुषों-जीवों द्वारा ( सम्यक चारित्रं ) सम्यकचारित्र । आलंब्यं ) धारण किया जाना चाहिये। ___विशेषार्थ-जिन जीवोंको सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति हो चुकी है, और जो सम्यग्दर्शनकी दृढ़तासे कभी विचलित नहीं होते हैं, वे ही जीव सम्यकचारित्र धारण करनेके पात्र हैं। अथवा सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञानकी प्राप्तिके पश्चात सम्यकचारित्र धारण करना चाहिये । बिना सम्यक्चारित्र धारण किये आत्मा उन्नत अवस्थामें नहीं जा सकता, कषायोंका परित्याग नहीं कर सकता, इंद्रियोंपर विजयलाभ नहीं कर सकता; अतएव आत्माके निज-गुणोंका विकाश भी नहीं कर सकता और निज गुणोंके विकाशके बिना आत्माकी अवनत ( नीचली) दशा रहती है । इसलिये सम्यग्दृष्टि जीवोंको उचित है कि सम्यकचारित्र धारण करके जीवनको महत्त्वशाली एवं सुखमय बनावें । परंतु सम्यक्चारित्र से पहले उस आत्माको सम्यग्दृष्टि और सम्यग्ज्ञानी बनना परम आवश्यक है, बिना सम्यग्दर्शन लाभ किये वह सन्मार्गपर आरूढ़ ही नहीं हो सकता। वैसी अवस्थामें उसकी जितनी भी क्रियायें होंगी, सब मिथ्याचरणरूप होंगी। उन सम्यक्त्व-विहीन मिथ्याचरण-युक्त क्रियाओंसे पापबंधके सिवा कोई लाभ नहीं । इसलिये वे ही क्रियायें फलवती होती हैं जो सम्यक्त्वपूर्वक हैं । सम्यक्त्व प्राप्तिके साथ सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति भी सम्यक्चारित्र से पहले आवश्यक है, बिना सम्यग्ज्ञान प्राप्त किये समस्त क्रियायें उतना फल नहीं दे सकतीं जितना कि सम्यग्ज्ञानीको हो सकता है । कारण भी उसका यह है कि सम्यग्ज्ञानीके विचारोंमें सदा तात्विकबोध जागृत रहता है, उसके निमित्तसे वह लघु क्रियाओं द्वारा भी विशेषफलका भाजन बन जाता है । विना सम्यग्ज्ञान-प्राप्तिके विशेष एवं कठिन तपसे भी कम फलकी प्राप्ति हो सकती है। परंतु यह कोई नियम नहीं है कि विशेष २३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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